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गाथा ३५ ]
द्वितीयोऽधिकारः
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एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्य क्षेत्र कालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्त्रशुद्धात्मसंवित्तिविनाश केषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंविजिलेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मन्येव भावनां करोति । ततश्च यादृशमेव परमात्मानं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसार विलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति । श्रयं तु विशेषः - नित्यनिगोदजीवान् विहाय, पञ्चप्रकोरसंसारव्याख्यानं ज्ञातव्यम् । कस्मादिति चेत् — नित्यनिगोदजीवानां कालत्रयेऽपि सत्वं नास्तीति । तथा चोक्तं – 'अस्थि अता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो | भावकलंकसु पउरा शिगोदवासं ण मुंचति । १ ।' अनुपममद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशतपरिमाणास्ते च नित्य निगोदवासिनः क्षपितकर्माण इन्द्रगोपाः संजतास्तेषां च पुञ्जीभूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वापि वर्द्धनकुमारादयो भरतपुत्रा जातास्ते च केनचिदपि सहन वदन्ति । ततो भरतेन समवसरणे भगवान् पृष्टो, भगवता च प्राक्तनं वृत्तान्तं कथितम् । तच्छ्र ुत्वा ते तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं
इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पाँच प्रकार के संसार को चिन्तन करते हुए इस जीव के, संसार रहित निज शुद्ध आत्मज्ञान का नाश करने वाले तथा संसार की वृद्धि के कारणभूत जो मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, उनमें परिणाम नहीं जाता किन्तु वह संसारातीत ( संसार में प्राप्त न होने वाला अतीन्द्रिय) सुख के अनुभव में लीन होकर, निज-शुद्धात्मज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाले निजनिरंजन- परमात्मा में भावना करता है । तदनन्तर जिस प्रकार के परमात्मा को भाता है. उसी प्रकार के परमात्मा को प्राप्त होकर संसार से विलक्षण मोक्ष में अनन्तकाल तक रहता है । यहाँ विशेष यह है - नित्य निगोद के जीवों को छोड़कर, पंच प्रकार के संसार का व्याख्यान जानना चाहिये (नित्य- निगोदी जीव इस पंच प्रकार के संसार में परिभ्रमण नहीं करते); क्योंकि, नित्य निगोदवर्त्ती जीवों को तीन काल में भी सपर्याय नहीं मिलती । सो कहा भी है- 'ऐसे अनन्त जीव हैं कि जिन्होंने सपर्याय को अभी तक प्राप्त ही नहीं किया और जो भाव - कलंकों (अशुभ परिण मां) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोद के निवास को कभी नहीं छोड़ते ।' किन्तु यह वृत्तान्त अनुपम और अद्वितीय है कि नित्य निगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि नौ सौ तेईस जीव, कर्मों की निर्जरा (मंद ) होने से, इन्द्रगोप (मखमली लाल कीड़े) हुए; उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया इससे वे मर कर, भरत के वर्द्धनकुमार आदि पुत्र हुए। वे पुत्र किसी के भी साथ नहीं बोलते थे । इसलिये भरत ने समवसरण में भगवान् से पूछा, तो भगवान् ने उन पुत्रों का पुराना सब वृत्तान्त कहा |
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