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१२६] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ३५ पर्वते लग्नं तिष्ठति । तयोर्मध्ये यत्रिकोणाकारक्षेत्रमुत्तमभोगभूमिरूपं तस्योत्तस्कुरुसंज्ञा । तस्य च मध्ये मेरोरीशानदिग्विभागे शीतानीलपर्वतयोर्मध्ये परमागमवर्णितानाद्यकृत्रिमपार्थिवो जम्बूवृक्षस्तिष्ठति । तस्या एव शीताया उभयतटे यमकगिरिसंज्ञं पर्वतद्वयं विज्ञेयम् । तस्मात्पर्वतद्वयाद्दक्षिणभागे कियन्तमभ्वानं गत्वा शीतानदीमध्ये अन्तरान्तरेण पनादिह्रदपञ्चकमस्ति । तेषां ह्रदानामुभयपार्श्वयोः प्रत्येक सुवर्णरत्नमयजिनगृहमण्डिता लोकानुयोगव्याख्यानेन दश दश सुवर्णपर्वता भवन्ति । तथैव निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकोत्तमपात्रपरमभक्तिदत्ताहारदानफलेनोत्पन्नानां तिर्यग्मनुष्याणां स्वशुद्धात्मभावनोत्पन्ननिर्विकारसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादविलक्षणस्य चक्रवर्तिभोगसुखादप्यधिकस्य विविधपञ्चेन्द्रियभोगसुखस्य प्रदायका ज्योतिगृहप्रदीपतूर्य भोजनवस्त्रमाल्यभाजनभूषणरागमदोत्पादकरसांगसंज्ञा दशप्रकारकल्पवृक्षाः भोगभूमिक्षेत्रं व्याप्य तिष्ठन्तीत्यादिपरमागमोक्तप्रकारेणानेकाश्चर्याणि ज्ञातव्यानि । तस्मादेव मेरुगजादक्षिणदिग्विभागेन गजदन्तद्वयमध्ये देवकुरुसंज्ञमुत्तमभोगभूमिक्षेत्रमुत्तरकुरुवद्विशेयम् ।
निकले हैं, उनका नाम 'दो-गजदन्त' है और वे दोनों उत्तर भाग में जो नील पर्वत है उसमें लगे हुए हैं। उन दोनों गजदन्तों के मध्य में जो त्रिकोण आकारवाला उत्तम भोगभूमिरूप क्षेत्र है, उसका नाम 'उत्तरकुरु' है और उसके मध्य में मेरु की ईशान दिशा में शीता नदी और नील पर्वत के बीच में परमागम-कथित अनादि-अकृत्रिम तथा पृथ्वीकायिक जम्बू वृक्ष है । उसी शीता नदी के दोनों किनारों पर यमकगिरि नामक दो पर्वत जानने चाहियें। उन दोनों यमकगिरि पर्वतों से दक्षिण दिशा में कुछ मार्ग चलने पर शीता नदी के बीच में कुछ-कुछ अन्तराल से पद्म आदि पांच हृद हैं । उन हृदों के दोनों पसवाड़ों में
से प्रत्येक पार्श्व में, लोकानुयोग के व्याख्यान के अनुसार, सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित जिन: चैत्यालयों से भूषित दश दश सुवर्ण पर्वत हैं । इसी प्रकार निश्चय तथा व्यवहार रत्नत्रय
की आराधना करने वाले उत्तम पात्रों को परम भक्ति से दिये हुए आहार-दानं के फल से उत्पन्न हुए तिथंच और मनुष्यों को, निज शुद्ध आत्म-भावना से उत्पन्न होनेवाला निर्विकार सदा आनन्दरूप सुखामृत रस के आस्वाद से विलक्षण और चक्रवर्ती के भोग-सुखों से भी अधिक, नाना प्रकार के पंचेन्द्रिय सम्बन्धी भोग-सुखों के देनेवाले ज्योतिरङ्ग, गृहाङ्ग, दीपाङ्ग, तूर्याङ्ग, भोजनाङ्ग, वस्त्राङ्ग, माल्याङ्ग, भाजनाङ्ग, भूषणङ्ग तथा राग एवं मद को उत्पन्न करने वाले रसाङ्ग नामक, ऐसे दस प्रकार के कल्पवृक्ष भोगभूमिया क्षेत्र में स्थित हैं। इत्यादि परमागमकथित प्रकार से अनेक आश्चर्य समझने चाहिये। उसी मेरुगज से निकले हुए दक्षिण दिशा में जो 'दो-गजदन्त' हैं उनके मध्य में उत्तर कुरु के समान देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि का क्षेत्र जानना चाहिये ।
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