________________
१३०] वृहद्र्व्य संग्रह
[गाथा ३५ मध्येऽष्टौ क्षेत्राणि भवन्ति । तेषां क्रमेण नामानि कथ्यन्ते-वा १ सुवप्रा २ महावप्रा ३ वप्रकावती ४ गन्धा ५ सुगन्धा ६ गन्धिला ७ गन्धमालिनी ८ चेति । तन्मध्यस्थित नगरीणां नामानि कथ्यन्ते । विजया १. वैजयंती २ जयंती ३ अपराजिता ४ चक्रपुरी ५ खड्गपुरी ६ अयोध्या ७ अवध्या ८ चेति ।
अथ यथा-भरतक्षेत्रे गङ्गामिधुनदीद्वयेन विजयार्धपर्वतेन च म्लेच्छखण्डपञ्चकमार्यखण्डं चेति षट् खण्डानि जातानि । तथैव तेषु द्वात्रिंशत्क्षेत्रेषु गङ्गासिंधुसमाननदीद्वयेन विजयार्धपर्वतेन च प्रत्येकं षट् खण्डानि ज्ञातव्यानि । अयं तु विशेषः । एतेषु क्षेत्रेषु सर्वदेव चतुर्थकालादिसमानकालः । उत्कर्षेण पूर्वकोटिजीवितं, पश्चशतचापोत्सेधश्चेति विज्ञेयम् । पूर्वप्रमाणं कथ्यते । “पुव्वस्स हु परिमाणं सदरिं खलु सदसहस्सकोडीओ। छष्पण्णं च सहस्सा बोधव्या वासगणनायो ।१।" इति संक्षेपेण जम्बूद्वीपव्याख्यानं समाप्तम् ।
___तदनन्तरं यथा सर्वद्वीपेषु सर्वसमुद्रषु च द्वीपसमुद्रमर्यादाकारिका योजनाष्टकोत्सेधा वज्रवेदिकास्ति तथा जम्बूद्वीपेप्यस्तीति विज्ञेयम् । यद्वहिर्भागे योजनलक्षद्वयवलयविष्कम्भ आगमकथितषोडशसहस्रयोजनजलोत्सेधाद्यनेकाश्चर्य
है-वप्रा १, सुवप्रा २, महावप्रा ३, वप्रकावती ४, गंधा ५, सुगंधा ६, गंधिला ७ और गंधमालिनी ८ । उन क्षेत्रों के मध्य में वर्तमान नगरियों के नाम कहते हैं-विजया १, पैजयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४, चक्रपुरी ५, खड्गपुरी ६, अयोध्या ७ और अवध्या ८।
अब जैसे भरत क्षेत्र में गंगा और सिंधु इन दोनों नदियों से तथा विजया पर्वात से पांच म्लेच्छ खंड और एक आर्य खंड ऐसे छः खंड हुए हैं, उसी तरह पूर्वोक्त बत्तीस विदेह क्षेत्रों में गंगा सिंधु समान दो नदियों और विजयाध पर्वत से प्रत्येक क्षेत्र के छः खंड जानने चाहिये । इतना विशेष है कि इन सब क्षेत्रों में सदा चौथे काल की आदि जैसा काल रहता है । उत्कृष्टता से कोटि पूर्ण प्रमाण आयु है और पांच सौ धनुष प्रमाण शरीर का उत्सेध है । पूर्व का प्रमाण कहते हैं-"पूर्वा का प्रमाण सत्तर लाख छप्पन हजार कोडि वर्षे जानना च.हिये ।” ऐसे संक्षेप से जंबू द्वीप का व्याख्यान समाप्त हुआ।
जैसे सब द्वीप और समुद्रों में द्वीप और समुद्र की मर्यादा (सीमा) करने वाली आठ योजन ऊंची वज्र की वेदिका (दीवार) है, उसी प्रकार से जंबू द्वीप में भी है, ऐसा जानना चाहिये । उस वेदिका के बाहर दो लाख योजन चौड़ा गोलाकार शास्त्रोक्त सोलह हजार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org