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गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः
[११५ पृथिवीनां प्रत्येकं घनोदधिधनवाततनुवातत्रयमाधारभूतं भवतीति विज्ञेयम् । कस्यां पृथिव्यां कति नरकबिलानि सन्तीति प्रश्ने यथाक्रमेण कथयति-तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ८४००००० । अथ रत्नप्रभादिपृथिवीनां क्रमेण पिण्डस्य प्रमाणं कथयति । पिण्डस्य कोऽर्थ ? मन्द्रत्वस्य बाहुल्यस्येति । अशीतिसहस्राधिकैकलक्षं तथैव द्वात्रिंशदष्टाविंशतिचतुर्विंशतिविंशतिषोडशाष्टसहसूप्रमितानि योजनानि ज्ञातव्यानि । तिर्यविस्तारस्तु चतुर्दिग्विभागे यद्यपि त्रसनाड्यपेक्षयैकरज्जुप्रमाणस्तथापि त्रसरहितबहिर्भागे लोकान्तप्रमाणमिति । तथाचोक्तं "भुवामन्ते स्पृशन्तीनां लोकान्तं सर्वदिक्षु च"। अत्र विस्तारेण तिर्यविस्तारपर्यन्तमन्द्रत्वेन मंदरावगाहयोजनसहसूबाहुल्या मध्यलोके या चित्रा पृथिवी तिष्ठति तस्या अधोभागे षोडशसहसूबाहुल्यः खरभागस्तिष्ठति । तस्मादप्यधश्चतुरशीतियोजनसहसूबाहुल्यः पङ्कभागः तिष्ठति । ततोऽप्यधोभागे अशीतिसहसूबाहुन्यो अब्बहुलभागस्तिष्ठतीत्येवं रत्नप्रभा पृथिवी त्रिभेदा ज्ञातव्या । तत्र खरभागेऽसुरकुलं विहाय नवप्रकारभवनवासिदेवानां
आदि पंच स्थावरों से भरा हुआ है। घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक जो तीन वातवलय हैं वे रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथिवी के आधारभूत हैं ( रत्नप्रभा आदि पृथिवी इन तीनों वातवलयों के आधार से हैं ), यह जानना चाहिये। किस पृथिवी में कितने ( कुएं सरीखे ) नरक-बिले हैं, उनको यथाक्रम से कहते हैं-पहली भूमि में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दश लाख. पांचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख तथा सातवीं पृथिवी में पाँच, इस प्रकार सब मिलकर चौरासी लाख ८४००००० नरक-बिले हैं। अब रत्नप्रभा आदि भूमियों का पिंड प्रमाण क्रम से कहते हैं। यहाँ पिंड शब्द का अर्थ गहराई या मोटाई है। प्रथम पृथिवी का एक लाख अस्सी हजार, दूसरी का बत्तीस हजार, तीसरी का अट्ठाईस हजार, चौथी का चौबीस हजार, पाँचवीं का बीस हजार, छठी का सोलह हजार और सातवीं का आठ हजार योजन पिंड जानना चाहिये । उन पृथिवियों का तिर्यग विस्तार चारों दिशाओं में यद्यपि त्रस नाड़ी की अपेक्षा से एक रज्जु प्रमाण है तथापि त्रसों से रहित जो त्रस नाड़ी के बाहर का भाग है वह लोक के अन्त तक है । सोही कहा है-"अन्त को स्पर्श करती हुई भूमियों का प्रमाण सब दिशाओं में लोकान्त प्रमाण है।" अब यहां विस्तार की अपेक्षा तिर्यग लोक पर्यंत विस्तार वाली, गहराई ( मोटाई ) की अपेक्षा मेरु की अवगाह समान एक हजार योजन मोटी चित्रा पृथिवी मध्य लोक में है । उस पृथिवी के नीचे सोलह हजार योजन मोटा खर भाग है । उस खर भाग के भी नीचे चौरासी हजार योजन मोटा पङ्क भाग है। उससे भी नीचे के भाग में अस्सी हजार योजन मोटा अब्बहुल भाग है । इस प्रकार रत्नप्रभा
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