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गाथा ३५ ]
द्वितीयोऽधिकारः
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वचनौषधं सेवते । तेन च कर्ममलानां गलने निर्जरणे सति सुखी भवति । किश्वयथा कोऽपि धीमानजी काले यदुखं जातं तदजीर्णे गतेऽपि न विस्मरति ततश्चाजीर्णजनकाहारं परिहरति तेन च सर्वदैव सुखी भवति । तथा विवेकिजनोso ' नरा धर्मपरा भवन्ति' इति वचनादुखोत्पत्तिकाले ये धर्मपरिणामा जायन्ते तान् दुःखे गतेऽपि न विस्मरति । ततश्च निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिविभाव परिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैवर्त्तत इति । संवेगवैराग्यलक्षणं कथ्यते - 'धम्मे य धम्मफलझि दंसणे य हरिसो यहुति संवेगो । संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । १।' इति निर्जरानुप्रेक्षा
गता ॥ ६ ॥
अथ लोकानुप्रेक्षां प्रतिपादयति । तद्यथा - अनंतानंताकाशबहुमध्यप्रदेशे घनोदधिधनवाततनुवाताभिधानवायुत्रयवेष्टितानादिनिधनाकृत्रिमनिश्चला संख्यातप्रदेशो लोकोऽस्ति । तस्याकारः कथ्यते - अधोमुखाद्ध मुरजस्योपरि पूर्णे सुरजे स्थापिते यादृशाकारो भवति तादृशाकारः, परं किन्तु मुरजो वृत्तो लोकस्तु चतुष्कोण इति
करने वाला, जो परम औषध के स्थानभूत जिनवचन रूप औषध है, उसका सेवन करता है; उससे कर्मरूपी मलों के गलन तथा निर्जरण हो जाने पर सुखी होता है। विशेष - जैसे कोई बुद्धिमान् अजीर्ण के समय जो कष्ट हुआ उसको अजीर्ण चले जाने पर भी नहीं भूलता और अजीर्ण पैदा करने वाले आहार को छोड़ देता है, जिससे सदा सुखी रहता है; उसी तरह ज्ञानी मनुष्य भी, 'दुःखी मनुष्य धर्म में तत्पर होते हैं इस वाक्यानुसार, दुःख के समय जो धर्म रूप परिणाम होते हैं उनको दुःख नष्ट हो जाने पर भी नहीं भूलता। तत्पश्चात् 'निज परमात्म अनुभव के बल से निर्जरा के लिये देखे, सुने तथा अनुभव किए हुए भोगवांछादि रूप विभाव परिणाम के त्याग रूप संवेग तथा वैराग्य रूप परिणामों के साथ रहता है | संवेग और वैराग्य का लक्षण कहते हैं— धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन में जो हर्ष होता है सो तो संवेग है; और संसार, देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य । १ ।' ऐसे निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ६ ॥
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अब लोकानुप्रेक्षा का प्रतिपादन करते हैं: - वह इस प्रकार है- अनंतानंत आकाश के बिल्कुल मध्य के प्रदेशों में, घनोदधि घनवात तनुवात नामक तीन पवनों से बेढा हुआ, अनादि अनंत-अकृत्रिम - निश्चल - असंख्यात प्रदेशी लोक है । उसका आकार बतलाते हैं. नीचे मुख किये हुए आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रखने पर जैसा आकार होता है वैसा आकार लोक का है; परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है, यह अन्तर है। अथवा पैर फैलाये, कमर पर हाथ रक्खे, खड़े हुए मनुष्य का जैसे आकार होता है, वैसा लोक का
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