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गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः
[ १११ "आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा दयोमिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा । १।" इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता ।६।
अत ऊर्ध्वमास्त्रवानुप्रेक्षा कथ्यते । समुद्र सच्छिद्रपोतवदयं जीव इन्द्रियाद्यास्रवः संसारसागरे पततीति वार्तिकम् । अतीन्द्रियस्वशुद्धात्मसंवित्तिविलक्षणानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि भण्यन्ते । परमोपशममूर्तिपरमात्मस्वभावस्य क्षोभोत्पादकाः क्रोधमानमायालोभकषाया अभिधीयन्ते । रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपायाः शुद्धात्मानुभूतेः प्रतिकूलानि हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहप्रवृत्तिरूपाणि पश्चात्तानि । निष्क्रियनिर्विकारात्मतत्त्वाद्विपरीतो मनोवचनकायव्यापाररूपाः परमागमोक्ता : सम्यक्त्वक्रिया मिथ्यात्वक्रियेत्यादिपञ्चविंशतिक्रिया: उच्यन्ते । इन्द्रियकषायाव्रतक्रियारूपासवाणां स्वरूपमेतद्विज्ञेयम् । यथा समुद्रऽनेकरत्नभाण्डपूर्णस्य सच्छिद्रपोतस्य जलप्रवेशे पातो भवति, न च वेलापत्तनं प्रामोति । तथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणामूल्यरत्नभाण्डपूर्णजीवपोतस्य पूर्वोक्तास्रवद्वारैः कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्र पातो भवति, न च केवलज्ञानाव्यापा
शील रूप तट और दयामय तरङ्गों की धारक जो आत्मा रूप नदी है, उसमें हे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ! स्नान करो क्योंकि, अन्तरात्मा जल से शुद्ध नहीं होता । १।' इस प्रकार
शुचित्व अनुप्रेक्षा का वर्णन हुआ ॥ ६ ॥
अब आगे आस्रवानुप्रेक्षा को कहते हैं। जैसे छेद वाली नाव समुद्र में डूबती है, उसी तरह इन्द्रिय आदि छिद्रों द्वारा यह जीव संसार-समुद्र में गिरता है, यह वार्तिक है । अतीन्द्रिय निज-शुद्धआत्मज्ञान से विलक्षण स्पर्शन, रसना, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । परम उपशम रूप परमात्म स्वभाव.को क्षोभित करने वाले क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार कषाय कहे जाते हैं। राग आदि विकल्पों से रहित ऐसे शुद्ध-आत्मानुभव से प्रतिकूल हिंसा, झूठ, चोरी, ब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों में प्रवृत्ति रूप पाँच अव्रत हैं। क्रिया रहित और निर्विकार आत्मतत्त्व से विपरीत मन वचन काय के व्यापार रूप शास्त्र में कही हुई सम्बकक्रिया मिथ्यात्व क्रिया आदि पच्चीस क्रिया हैं। इस प्रकार इन्द्रिय, कषाय, अव्रत, क्रिया रूप आस्रवों का स्वरूप जानना चाहिये। जैसे समुद्र में अनेक रत्नों से भरा हुआ छिद्र सहित जहाज जल के प्रवेश से डूब जाता है, समुद्र के किनारे पत्तन (नगर) को नहीं पहुंच पाता। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप अमूल्य रत्नों से पूर्ण जीव रूपी जहाज, इन्द्रिय आदि आस्रवों द्वारा कर्म रूपी जल का प्रवेश हो जाने पर, संसार रूपी समुद्र में डूब जाता है । केवलज्ञान अव्याबाध सुख आदि अनंत गुणमय रत्नों से पूर्ण व मुक्ति
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