________________
१०६] वृहद्र्व्यसंग्रहः
[ गाथा ३५ चतुःस्थानपतितानि सर्वजघन्ययोगस्थानानि भवन्ति तथैव सर्वोत्कृष्टप्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टमनोवचनकायव्यापाररूपाणि तद्योग्यश्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि चतु:स्थानपतितानि सर्वोत्कृष्टयोगस्थानानि च भवन्ति । तथैव सर्वजघन्यस्थितिबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थानानि तद्योग्यासंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति । तथैव च सर्वोत्कृष्टस्थितिबंधनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टकषायाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति । तथैव सर्वजघन्यानुभागबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यानुभागाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि भवन्ति । तथैव च सर्वोत्कृष्टानुभागबंधनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टानुभागाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च विज्ञेयानि । तेनैव प्रकारेण स्वकीयस्वकीयजघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये तारतम्येन मध्यमानि च भवन्ति । तथैव जघन्यादुत्कृष्टपर्यन्तानि ज्ञानावरणादिमूलोत्तरप्रकृतीनां स्थितिबंधस्थानानि च । तानि सर्वाणि परमागमकथितानुसारेणानन्तवारान् भ्रमितान्यनेन जीवेन, परं किन्तु पूर्वोक्तसमस्तप्रकृतिबन्धादीनां सद्भावविनाशकारणानि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाणि यानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तान्येव न लब्धानि । इति भावसंसारः। प्रकार सर्व उत्कृष्ट प्रकृति बन्ध व प्रदेश बन्ध के कारणभूत, सर्वोत्कृष्ट मन, वचन, काय के व्यापार रूप, यथायोग्य श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण, चार स्थानों में पतित सर्वोत्कृष्ट योगस्थान होते हैं। इसी प्रकार सर्वजघन्य स्थिति बन्ध के कारणभूत, अपने योग्य असंख्यात लोक प्रमाण, षट् स्थान वृद्धिहानि में पतित सर्वजघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं। इसी तरह सर्वोत्कृष्ट स्थिति बन्ध के कारणभूत सर्वोत्कृष्ट कषाय अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण और षट् स्थानों में पतित होते हैं। इसी प्रकार सबसे जघन्य अनुभाग बन्ध के कारणभूत सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक-प्रमाण तथा षट् स्थान पतित हानिवृद्धि रूप होते हैं। इसी प्रकार सबसे उत्कृष्ट अनुभाग बंध के कारण जो सर्वोत्कृष्ट अनुभाग अध्यवसाय स्थान हैं वे भी असंख्यात लोक प्रमाण और षट् स्थान पतित जानने चाहिये। इसी प्रकार से अपने-अपने जघन्य और उत्कृष्टों के बीच में तारतम्य से मध्यम भेद भी होते हैं। इसी तरह जघन्य से उत्कृष्ट तक ज्ञानावरण आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतियों के स्थिति बंधस्थान हैं। उन सब में, परमागम अनुसार, इस जीव ने अनन्त बार भ्रमण किया, परन्तु पूर्वोक्त समस्त प्रकृति बंध आदि की सत्ता के नाश के कारण जो विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज परमात्मतत्त्व के सम्यकश्रद्धान, ज्ञान, आचरण रूप जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र हैं, उनको इस जीव ने प्राप्त नहीं किया । इस प्रकार 'भावसंसार' है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org