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१००] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ३५ गच्छतो भिक्षोदुष्टजनाक्रोशोत्प्रहसनावज्ञानताडनशरीरव्यापादनादीनां क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां सन्निधाने कालुष्याभावः क्षमा इति उच्यते ॥१॥ जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवं ॥ २ ॥ योगस्यावक्रता आर्जवं । योगस्यकायवाङ्मनोलक्षणस्यावक्रता आर्जवं इति उच्यते ॥३॥ सत्सु साधुवचनं सत्यं । सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमिति उच्यते ॥४॥ प्रकर्षप्राप्ता लोभनिवृत्तिः शौचं । लोभस्य निवृत्तिः प्रकषेप्राप्ता, शुचेर्भावः कर्म वा शौचं इति निश्चीयते ॥ ५॥ समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः । ईर्यासमित्यादिषु वर्तमानस्य मुनेस्तत्प्रतिपालनार्थः प्राणीन्द्रियपरिहारः संयम इत्युच्यते । एकेन्द्रियादि प्राणिपीड़ापरिहारः प्राणिसंयमः। शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषु रागानभिष्वङ्ग इन्द्रियसंयमः ।
तत्प्रतिपादनार्थः शुद्ध्यष्टकोपदेशः, तद्यथा-अष्टौ शुद्धयः-भावशुद्धिः, कालशुद्धिः, विनयशुद्धिः, ईर्यापथशुद्धिः, भिक्षाशुद्धिः, प्रतिष्ठापनशुद्धिः, शयनासनशुद्धिः, वाक्यशुद्धिश्चेति । तत्र भावशुद्धिः कर्मक्षयोपशमजनिता, मोक्षमार्गरुच्या
आदि के अवसर प्राप्त होने पर कलुषता का न होना क्षमा है अर्थात् शरीर की स्थिति का कारण जो शुद्ध आहार उसकी खोज के लिये पर कुलों (गृहों) में जाते हुये मुनि को दुष्टजनों द्वारा गाली, हास्य, निरादर के वचन कहें जाने पर भी तथा ताड़न, शरीर घात इत्यादि क्रोध उत्पन्न होने के निमित्त कारण मिलने पर भी परिणामों में मलिनता न आना, इस ही का नाम क्षमा कहा गया है ॥१॥
उत्तम जाति आदि मद के आवेग से अभिमान का न होना मार्दव है ॥२॥ योगों की अकुटिलता आर्जव है अर्थात् मन वचन कायरूप योगों की सरलता को आर्जव कहा गया है। ॥ ३ ॥ सत्जनों से साधुवचन वोलना सत्य है अर्थात् प्रशस्त एवं श्रेष्ठ सज्जन पुरुषों से जो समीचीन वचन बोलना, वह सत्य कहलाता है ॥४॥ लोभ की निवृत्ति की प्रकर्षता होना, शौच है । शुचि नाम पवित्रता का है, शुचि के भाव व कर्म को शौच कहते हैं ॥५॥ समितियों के पालन करने वाले मुनिराज का प्राणियों की रक्षा करना तथा इन्द्रियों के विषयों का निषेध संयम है, अर्थात् ईर्यासमिति आदि में प्रर्वतमान मुनि का उनकी (समिति की) प्रतिपालना के लिये प्राणी पीड़ा परिहार एवं इन्द्रियविषयाशक्ति परिहार को संयम कहते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा का त्यागाप्राणि संयम है, शब्दादि इन्द्रियविषयों में राग का लगाव न होना इन्द्रिय-संयम है।
उस संयम के विशेष निरूपण करने के लिये अथवा उसकी पालना के लिये अष्टशुद्धियों का उपदेश है । वे अष्टशुद्धि इस प्रकार हैं:-भावशुद्धि-कायशुद्धि-विनयशुद्धि-ईर्यापथशुद्धि-भिक्षाशुद्धि-प्रतिष्ठापनशुद्धि-शयनासनशुद्धि-वाक्यशुद्धि । इनमें भावशुद्धि कर्म के
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