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गाथा ३३ ]
द्वितीयोऽधिकारः का प्रकृतिः १ देवतामुखवस्त्रमिव ज्ञानप्रच्छादनता। दर्शनावरणीयस्य का प्रकृतिः? राजदर्शनप्रतिषेधकप्रतीहारवदर्शनप्रच्छादनता। सातासातवेदनीयस्य का प्रकृतिः ? मधुलिप्तखङ्गधारास्वादनवदल्पसुखबहुदुःखोत्पादकता। मोहनीयस्य का प्रकृतिः ? मद्यपानवद्ध योपादेयविचारविकलता । आयुःकर्मणः का प्रकृतिः १ निगडवद्गत्यन्तरगमननिवारणता । नामकर्मणः का प्रकृतिः ? चित्रकारपुरुषवन्नानारूपकरणता। गोत्रकर्मणः का प्रकृतिः ? गुरुलघुभाजनकारककुम्भकारवदुच्चनीचगोत्रकरणता । अन्तरायकर्मणः का प्रकृतिः ? भाण्डागारिकवद्दानादिविघ्नकरणतेति। तथाचोक्तं'पडपडिहारसिमजाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं । जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयव्वा ॥१॥ इति दृष्टान्ताष्टकेन प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्यः । अजागोमहिष्यादिदुग्धानां प्रहरद्वयादिस्वकीयमधुररसावस्थानपर्यन्तं यथा स्थितिभण्यते, तथा जीवप्रदेशेष्वपि यावत्कालं कर्म सम्बन्धेन स्थितिस्तावत्कालं स्थितिबन्धो ज्ञातव्यः। यथा च तेषामेव दुग्धानां तारतम्येन रसगतशक्तिविशेषोऽनुभागो भएयते तथा जीवप्रदेश
देता है) उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को ढक देता है । दर्शनावरण की प्रकृति क्या है ? राजा के दर्शन की रुकावट जैसे द्वारपाल करता है, उसी तरह दर्शनावरण दर्शन को नहीं होने देता । सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म की क्या प्रकृति है ? मधु (शहद) से लिपटी हुई तलवार की धार चाटने से जैसे कुछ सुख और अधिक दुःख होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म भी अल्पसुख और अधिक दुःख देता है । मोहनीय कर्म का क्या स्वभाव है ? मद्यपान के समान, 'हेय उपादेय पदार्थ के ज्ञान की रहितता' यह मोहनीय कर्म का स्वभाव अथवा मोहनीय कर्म की प्रकृति है। आयुकर्म की क्या प्रकृति है ? बेड़ी के समान दूसरी गति में जाने को रोकना, यह आयुकर्म की प्रकृति है । नामकर्म की प्रकृति क्या है ? चित्रकार के समान अनेक प्रकार के शरीर बनाना, यह नामकर्म की प्रकृति है। गोत्रकर्म का क्या स्वभाव है ? छोटे बड़े घट आदि को बनाने वाले कुम्भकार की तरह उच्च-नीच गोत्र का करना, यह गोत्र कर्म की प्रकृति है । अन्तरायकर्म का स्वभाव क्या है ? भंडारी के समान 'दान आदि में विघ्न करना', यह अन्तरायकर्म की प्रकृति है । सो ही कहा है-'पट प्रतीहार, द्वारपाल, तलवार, मद्य, बेड़ी, चितेरा, कुम्भकार और भंडारी इन आठों का जैसा स्वभाव है वैसा ही क्रम से ज्ञानावरण अदि आठों कर्मों का स्वभाव जानना चाहिये ॥१॥' इस प्रकार गाथा में कहे हुए आठ दृष्टान्तों के अनुसार प्रकृति बंध जानना चाहिए । बकरी, गाय, भैंस आदि के दूधों में जैसे दो पहर श्रादि समय तक अपने मधुर रस में रहने की मर्यादा है, (बकरी का दूध दो पहर तक अपने रस में ठीक स्थित रहता है; गाय, भैंस का दूध उससे अधिक देर तक ठीक बना रहता है), इत्यादि स्थिति का कथन है; उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्मसम्बंध की स्थिति है उतने काल को स्थितिबंध कहते हैं । जैसे उन बकरी आदि के दूध में तारतम से हीनाधिक मीठापन व चिकनाई शक्ति
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