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६२] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ३३ स्थितकर्मस्कन्धानामपि सुखदुःखदानसमर्थशक्तिविशेषोऽनुभागबन्धो विज्ञेयः । सा च घातिकर्मसम्बंधिनी शक्तिलतादार्वस्थिपाषाणभेदेन' चतुर्धा। तथैवाशुभाऽघातिकर्मसम्बंधिनी निम्बकाञ्जीर विषहालाहलरूपेण, शुभाघातिकर्मसम्बंधिनी पुनगडखण्डशर्करामृतरूपेण चतुर्धा भवति । एकैकात्मप्रदेशे सिद्धानन्तकभागसंख्या अभव्यानंतगुणप्रमिता अनंतानंतपरमाणवः प्रतिक्षणबंधमायांतीति प्रदेशबंधः । इदानीं बंधकारणं कथ्यते । 'जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो हुंति ।' योगात्प्रकृतिप्रदेशी, स्थित्यनुभागौ कषायतो भवत इति । तथाहि-निश्चयेन निष्क्रियाणामपि शुद्धात्मप्रदेशानां व्यवहारेण परिस्पंदनहेतुर्योगः, तस्मात्प्रकृतिप्रदेशबंधद्वयं भवति । निर्दोषपरमात्मभावनाप्रतिबंधकक्रोधादिकषायोदयात् स्थित्यनुभागबंधद्वयं भवतीति । आस्रवे बंधे च मिथ्यात्वाविरत्यादिकारणानि समानानि को विशेषः ? इति चेत् , नैवं; प्रथमक्षणे कर्मग्कंधानामागमनमास्रवः, आगमनानंतरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बंध इति भेदः । यत एव योगकथाया
रूप अनुभाग कहा जाता है, उसी प्रकार जीवप्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें भी जो हीनाधिक सुख-दुःख देने की समर्थ शक्ति विशेष है, उसको अनुभाग बन्ध जानना चाहिये । घाति कर्म से सम्बन्ध रखने वाली वह शक्ति लता (बेल) काठ, हाड़ और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है। उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में शक्ति नीम, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूप से चार तरह की है तथा शुभ अघातिया कर्मों की शक्ति गुड़, खांड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार तरह की है । एक-एक
आत्मा के प्रदेश में सिद्धां से अनन्तैक भाग (सिद्धों के अनन्तवें भाग) और अभव्य राशि से अनन्त गुणे ऐसे अनन्त नन्त परम णु प्रत्येक क्षण में बंध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार प्रदेश बंध का स्वरूप है। अब बंध के कारण को कहते हैं-"जोगो पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो हुन्ति” योग से प्रकृति प्रदेश और कषाय से स्थिति अनुभाग बंध होते हैं। निश्चयनय से क्रिया रहित शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, व्यवहार नय से उन आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन का ( चलायमान करने का ) जो कारण है उसको योग कहते हैं । उस योग से प्रकृति प्रदेश दो बंध होते हैं। दोषरहित परमात्मा की भावना (ध्यान) के प्रतिबंध करने वाले क्रोध आदि कषाय के उदय से स्थिति और अनुभाग ये दो बंध होते हैं । शंकाश्रासूव और वंध के होने में मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं, इसलिये आसव
और बंध में क्या भेद है ? उत्तर-यह शंका ठीक नहीं। क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन है वह तो आसूव है और कर्मस्कंधों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में
१ 'शक्तिभेदेन' इति पाठ अन्तरं
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