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गाथा ३४] द्वितीयोऽधिकारः
[६५ संवरो नास्ति, सासादनादिगुणस्थानेषु 'सोलसपणवीसणभं दसचउछक्केकबंधवोछिएगा । दुगतीसचदुरपुच्चे पणसोलस जोगिणो एक्को ।। इति बन्धविच्छेदत्रिभङ्गीकथितक्रमेणोपर्यु परि प्रकर्षेण संवरो ज्ञातव्य इति । अशुद्धनिश्चयमध्ये मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषूपयोगत्रयं व्याख्यातं, तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगः कथं घटते ? इति चेत्तत्रोत्तरं शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्ध कस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति तथैव फलभूतकेवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति किन्तु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते ।
कश्चिदाह- केवलज्ञानं सकलनिरावरणं शुद्धं तस्य कारणेनापि सकल
विवक्षित एक देश शुद्ध नयरूप शुद्ध उपयोग वर्त्तता है। इनमें से-मिथ्यादृष्टि (प्रथम) गुणस्थान में तो संवर है ही नहीं । सासादन आदि गुणस्थानों में, "मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणम्थान में १६ प्रकृतियों, दूसरे में २५, तीसरे में शून्य, चौथे में १०, पांचवें में ४, छटे में ६, सातवें में १, आठवें में २, ३० व ४, नौवे में ५, दसवें में १६ और सयोग केवली के १ प्रकृति की बन्ध व्युच्छत्ति होती है।" इस प्रकार बन्धविच्छेद त्रिभंगी में कहे हुए कर्म के अनुसार ऊपर २ अधिकता से संवर जानना चाहिए। ऐसे अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अशुभ, शुभ, शुद्ध रूप तीनों उपयोगों का व्याख्यान किया।
शंका-इस अशुद्ध निश्चयनय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार घटित होता है ? उत्तरशुद्ध उपयोग में शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव का धारक स्व-आत्मा ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) होता है. इस कारण उपयोग में शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध अवलम्बनपने से तथा शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग सिद्ध होता है । 'संवर' इस शब्द से कहे जाने वाला वह शुद्धोपयोग, संसार के कारणभूत जो मिथ्यात्व-राग आदि अशुद्ध पर्यायों की तरह अशुद्ध नहीं होता; तथा फलभूत केवलज्ञान स्वरूप शुद्ध पर्याय की भांति (वह शुद्धोपयोग) शुद्ध भी नहीं होता, किन्तु उन अशुद्ध तथा शुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण, शुद्ध आत्मा के अनुभव स्वरूप निश्चय रत्नत्रय रूप, मोक्ष का कारण, एक देश में प्रगट रूप और एक देश में आवरणरहित ऐसा तीसरी अवस्थान्तर रूप कहा जाता है।
कोई शंका करता है केवल ज्ञान समस्त आवरण से रहित शुद्ध है, इसलिये केवल ज्ञान का कारण भी समस्त आवरण रहित शुद्ध होना चाहिये, क्योंकि 'उपादान कारण के
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