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८८] वृहद्रव्यसंग्रहः
[ गाथा ३१ भेदाः कस्य सम्बन्धिनः "पुव्वस्स" पूर्वसूत्रोदितभावासूचस्येत्यर्थः ॥ ३० ॥
अथ द्रव्यासूवस्वरूपम्मुद्योतयति :
णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेश्रो अणेयभेरो जिणक्खादो ॥ ३१॥ ज्ञानावरणादीनां योग्यं यत् पुद्गलं समासूवति ।
द्रव्यासूवः सः ज्ञेयः अनेकभेदः जिनाख्यातः॥३१॥
व्याख्या-'णाणावरणादीणं' सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं ज्ञानशब्दवाच्यं परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं, तदादिर्येषां तानि ज्ञानावरणोदीनि तेषां ज्ञानावरणादीनां 'जोग्गं' योग्यं 'जं पुग्गलं समासवदि' स्नेहाभ्यक्तशरीराणां धूलिरेणुगमागम इव निष्कषायशुद्धात्मसंवित्तिच्युतजीवानां कर्मवर्गणारूपं यत्पुद्गलद्रव्यं समासूवति, 'दव्यासो स णेओ' द्रव्यासूवः स विज्ञयः । 'अणेयभेो' स च ज्ञानदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुनामगोत्रान्तरायसंज्ञानामष्टमूला कृतीनां भेदेन, तथैव 'पण णव दु अगीसा चउ
पञ्चीस प्रकार के कपाय हैं । ये सब भेद किप आरव के हैं ? " पुवत्स" पूर्वगाथा में कहे भावास्तव के हैं ।। ३० ॥
अब द्रव्यास्रव का स्वरूप कहते हैं :
गाथार्थ:-ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिये । वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥३१॥
वृत्त्यर्थ:-"णाणावरणादीणं" सहज शुद्ध केवल ज्ञान को अथवा अभेद की अपेक्षा केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणों के अाधार भूत, 'ज्ञान' शब्द से कहने योग्य परमात्मा को जो आवृत करे यानी ढके सो ज्ञानावरण है। वह ज्ञानावरण है आदि में जिनके ऐसे जो ज्ञानावरणादि हैं उनके 'जोग्गं' योग्य 'ज' जो 'पुग्गल' पुद्गल 'समासवदि' आता है। जैसे तेल से चुपड़े शरीर वाले जीवों की देह पर धूल के कण आते हैं, उसी प्रकार कषायरहित शुद्ध आत्मानुभूति से रहित जीवों के जो कर्मवर्गणा रूप पुद्गल आता है, 'दव्वासो सणेो ' उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिये। 'ऋणेयभेश्रो' वह अनेक प्रकार का है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुः, नाम, गोत्र तथा अन्तराय ये आठ मूल कर्मप्रकृति हैं तथा 'ज्ञानावरणीय के पांच, दर्शनावरणीय के ६, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ६३, गोत्र के २ और अन्तराय के पाँच इस प्रकार
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