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८६]] वृहद्र्व्य संग्रह
[ गाथा ३० णामेन किं भवति आसूवति कर्म, तत्परिणामस्य सामर्थ्य दर्शितं, न च द्रव्यासवव्याख्यानमिति भावार्थः ॥ २६ ॥
अथ भावासवस्वरूपं विशेषेण कथयति :-- मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादोऽथ विएणेया। पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥ ३० ॥ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगक्रोधादयः अथ विज्ञेयाः ।
पञ्च पञ्च पञ्चदश त्रयः चत्वारः क्रमशः भेदाः तु पूर्वस्य ॥३०॥
व्याख्या- "मिच्छत्ताविरदिपमादनोगकोधादो" मिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगक्रोधादयः । अभ्यन्तरे वीतरागनिजात्मतत्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं बहिर्विषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादकं च मिथ्यात्वं भण्यते । अभ्यन्तरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपरमसुखामृतरतिविलक्षणा बहिर्विषये पुनरव्रतरूपा चेत्यविरतिः। अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूपः, बहिर्विषये तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः ।
सामर्थ्य दिखाया गया है, द्रव्यासूव का व्याख्यान नहीं किया गया, यह तात्पर्य है ॥२६॥
अब भावासूव का स्वरूप विशेष रूप से कहते हैं:
गाथार्थ :-पहले (भावासूव) के, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और क्रोधादि कषाय (ऐसे पांच) भेद जानने चाहिये, उनमें से मिथ्यात्व आदि के क्रम से पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं । (अर्थात् मिथ्यात्व के पांच, अविरति के पांच, प्रमाद के पन्द्रह, योग के तीन और कषायों के चार भेद हैं)॥३०॥
वृत्त्यर्थ :-'मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादो' मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोध आदि कषाय आसव के भेद हैं । जो अन्तरंग में वीतराग निज आत्मतत्त्व के अनुभव रूप रुचि के विषय में विपरीत अभिनिवेश (अभिप्राय) उत्पन्न कराने वाला है तथा बाहरी विषय में अन्य के शुद्ध आत्मतत्त्व आदि समस्त द्रव्यों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न कराने वाला है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं । अन्तरङ्ग में निज परमात्मस्वरूप भावना से उत्पन्न परम-सुख-अमृत की प्रीति से विलक्षण तथा बाह्य विषय में व्रत आदि को धारण न करना, सो अविरति है । अन्तरङ्ग में प्रमादरहित शुद्ध आत्म-अनुभव से डिगाने रूप और वाह्य विषय में मूलगुणों तथा उत्तरगुणों में मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है । निश्चयनय
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