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क्षेपक गाथा १-२] चूलिका रूपेणाकत त्वमेव । 'सव्वगदं' लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते । लोकव्याप्त्यपेक्षया धर्माधौं च । जीवद्रव्यं पुनरेकजीवापेक्षया लोकपूरणावस्था विहायासर्वगतं, नानाजीवापेक्षया सर्वगतमेव भवति, पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगतं, शेषपद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति, कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति, लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति । "इदरंहि यपवेसे" यद्यपि सर्वद्रव्याणि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेनान्योन्यप्रवेशेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयनयेन चेतनादिस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति । अत्र षड्द्रव्येषु मध्ये वीतरागचिदानन्दैकादिगुणस्वभावं शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयमिति भावार्थः।
अत ऊर्ध्व पुनरपि षड्व्व्याणां मध्ये हेयोपादेयस्वरूपं विशेषेण विचारयति । तत्र शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण शुद्धबुद्धकस्वभावत्वात् सर्वे जीवा उपादेया भवन्ति । व्यक्तिरूपेण पुनः पञ्चपरमेष्ठिन एव । तत्राप्यर्हत्सिद्धद्वयमेव । तत्रापि निश्चयेन
पुद्गल आदि पांच द्रव्यों के तो अपने-अपने परिणाम से जो परिणमन है वही कर्तृत्व है
और वास्तव में पुण्य, पाप आदि की अपेक्षा अकर्तापना ही है ॥ “सव्वगदं” लोक और अलोक व्यापक होने की अपेक्षा आकाश सर्वगत कहा जाता है, लोक में सर्वव्यापक होने की अपेक्षा धर्म और अधर्म सर्वगत हैं । जीवद्रव्य एक जीव की अपेक्षा से लोकपूर्ण समुद्घात के सिवाय असर्वगत है किन्तु अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वगत ही है। पुद्गल द्रव्य लोकव्यापक महास्कध की अपेक्षा सर्वगत है और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत है, एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा तो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है किन्तु लोक प्रदेश के बराबर अनेक कालाणुओं की अपेक्षा कालद्रव्य लोक में सर्वगत है । "इदरंहि यपवेसे” यद्यपि व्यवहारनय से सब द्रव्य एक क्षेत्र में रहने के कारण आपस में प्रवेश करके रहते हैं, फिर भी निश्चयनय से चेतना आदि अपने २ स्वरूप को नहीं छोड़ते । इसका सारांश यह है कि इन छह द्रव्यों में वीतराग, चिदानन्द, एक शुद्ध बुद्ध आदि गुण स्वभाव वाला और शुभ, अशुभ मन, वचन और काय के व्यापार से रहित निज शुद्ध-आत्म-द्रव्य ही उपादेय है। .
तदनन्तर फिर भी छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय है, इसका विशेष विचार करते हैं। वहाँ शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शक्ति रूप से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव के धारक सभी जीव उपादेय हैं और व्यक्ति रूप से अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये पंच परमेष्ठी ही उपादेय हैं। उनमें भी अर्हन्त-सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं। इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं । परम-निश्वयनय से तो भोगों की इच्छा
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