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गाथा २८ ] द्वितीयोऽधिकारः
[८३ व्यशक्तिरूपशुद्धपारिणामिकभावविषये भावना भण्यते, पर्यायनामान्तरेण निर्विकल्पसमाधिर्वा शुद्धोपयोगादिकं चेति । यतः एव भावना मुक्तिकारणं ततः एव शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति, ध्यानभावनारूपो न भवति । कस्मादिति चेत् ? ध्यानभावनापर्यायो विनश्वरः स च द्रव्यरूपत्वादविनश्वर इति । इदमत्र तात्पर्य-मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालरहितनिजशुद्धात्मभावनोत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखसंवित्तिरूपा च भावना मुक्तिकारणं भवति। ता च कोऽपि जनः केनापि पर्यायनामान्तरेण भणतीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेणानेकांतव्याख्यानेनासूवबंधपुण्यपापपदार्थाः जीवपुद्गलसंयोगपरिणामरूपविभावपर्यायेणोत्पद्यन्ते । संवरनिर्जरामोक्षपदार्थाः पुनर्जीवपुद्गलसंयोगपरिणामविनाशोत्पन्नेन विवक्षितस्वभावपर्यायेणेति स्थितम् । तद्यथा
पासव बंधण संवर णिजर मोक्खो सपुरणपावा जे । जीवाजीवविसेसा तेवि समासेण पमणामो ॥ २८ ॥
आस्रवबंधनसंवरनिर्जरमोक्षाः सपुण्यपापाः ये । जीवाजीवविशेषाः तान् अपि समासेन प्रभणामः॥२८॥
उसी को 'द्रव्यशक्ति रूप शुद्ध पारिणामिक भाव के विषय में भावना' कहते हैं । अन्य पर्याय नामों से इसी द्रव्यशक्ति रूप पारिणामिक भाव की भावना को निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोग आदि कहते हैं। क्योंकि भावना मुक्ति का कारण है, इसलिये शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय यानी ध्यान करने योग्य है, ध्यान या भावना रूप नहीं होता । ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यह है, 'ध्यान या भावना' पर्याय है अतएव विनाशिक है । 'ध्येय' है, वह भावना पर्याय रहित द्रव्य रूप होने से विनाश रहित है । यहां तात्पर्य यह है-मिथ्यात्व, राग आदि विकल्पों से रहित निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्द रूप एक सुख अनुभव रूप जो भावना है वही मुक्ति का कारण है। उसी भावना को कोई पुरुष किसी अन्य नामों (निर्विकल्प ध्यान, शुद्धोपयोग आदि ) के द्वारा कहता है।
___ इस प्रकार अनेकान्त का आश्रय लेकर कहने से आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गल के संयोग परिणाम स्वरूप जो विभाव पर्याय हैं उससे उत्पन्न होते हैं । और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ, जीव और पुद्गल के संयोग रूप परिणाम के विनाश से उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं, यह निर्णीत हुआ।
___ गाथार्थ :-जीव, अजीव की पर्याय रूप जो आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप (ऐसे शेष सात पदार्थ) हैं; इनको संक्षेप से कहते हैं ॥ २८ ॥
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