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८२] वृहद्रव्यसंग्रहः
[ भूमिका कर्ता भवति । यस्तु पूर्वोक्तबहिरात्मनो विलक्षणः सम्यग्दृष्टिः स संवरनिर्जरा. मोक्षपदार्थत्रयस्य कर्ता भवति । रागादिविभावरहितपरमसामायिके यदा स्थातु समर्थो न भवति तदा विषयकषायोत्पन्नदुर्व्यानवञ्चनार्थ संसारस्थितिच्छेदं कुर्वन् पुण्यानुनंधितीर्थकरनामप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यपदार्थस्यापि कर्ता भवति । कर्तृत्वविषये नयविभागः कथ्यते । मिथ्यादृष्टेजीवस्य पुद्गलद्रव्यपर्यायरूपाणामासूवबंधपुण्यपापपदार्थानां कर्तृ त्वमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायरूपाणां पुनरशुद्धनिश्चयनयेनेति । सम्यग्दृष्टेस्तु संवरनिर्जरामोक्षपदार्थानां द्रव्यरूपाणां यत्कत त्वं तदप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायरूपाणां तु विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेनेति । परमशुद्धनिश्चयेन तु "ण वि उप्पजई, ण वि मरइ, बन्धु ण मोक्खुकरेइ । जिउ परमत्थे जोइया, जिणवरु एउँ भणेइ ।" इति वचनाद्वन्धमोक्षौ न स्तः। स च पूर्वोक्तविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय आगमभाषया किं भएयतेस्वशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपेण भविष्यतीति भव्यः, एवंभूतस्य भव्यत्वसंज्ञस्य पारिणामिकभावस्य संबन्धिनी व्यक्तिर्भण्यते । अध्यात्मभाषया पुनद्र
इच्छा आदि रूप निदान बंध से पापानुबन्धी पुण्यपदार्थ का भी कर्त्ता होता है । जो बहिरात्मा से विपरीत लक्षण का धारक सम्यग्दृष्टि जीव है वह संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का कर्ता होता है और यह सम्यग्दृष्टि जीव, जब राग आदि विभावों से रहित परम सामायिक में स्थित नहीं रह सकता, उस समय विषयकषायों से उत्पन्न होनेवाले दुर्ध्यान से बचने के लिये तथा संसार की स्थिति का नाश करता हुआ पुण्यातुबन्धी तीर्थकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । अब कर्तृत्व के विषय में नयों का विभाग निरूपण करते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव के जो पुद्गल द्रव्य पर्याय रूप श्रास्रव, बंध तथा पुण्य, पाप पदार्थों का कर्त्तापन है, सो अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा है और जीव-भाव पुण्य-पाप पर्याय रूप पदार्थों का कर्तृत्व अशुद्ध निश्चयनय से है तथा सम्यकदृष्टि जीव जो द्रव्य रूप संवर, निर्जरा तथा मोक्ष पदार्थ का कर्त्ता है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से है तथा संवर, निर्जरा मोक्षस्वरूप जीवभाव पर्याय का 'कर्ता', विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चयनय से है और परम शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा तो न बंध है न मोक्ष है । जैसा कहा भी है-“यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बंध तथा न मोक्ष को करता है, इस प्रकार श्री जिनेन्द्र कहते हैं"। पूर्वोक्त विवक्षितैकदेश शुद्ध निश्चयनय को आगमभाषा से क्या कहते हैं ? सो दिखाते हैं-निज शुद्ध आत्मा के सम्यकश्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप से जो होगा उसे 'भव्य' कहते हैं, इस प्रकार के भव्यत्व नामक पारिणामिक भाव से सम्बन्ध रखने वाली व्यक्ति कही जाती
अर्थात् भव्य पारिणामिक भाव की व्यक्ति यानी प्रकटता है और अध्यात्म भाषा में
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