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वृहद्र्व्य संग्रहः [क्षेपक गाथा १-२ पुनर्निष्क्रियाणि । 'णिच्चं' धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि यद्यप्यर्थपर्यायत्वेनानित्यानि, तथापि मुख्यवृत्त्या विभावव्यञ्जनपर्यायाभावान्नित्यानि, द्रव्यार्थिकनयेन च; जीवपुद्गलद्रव्ये पुनर्यद्यपि द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्ये तथाप्यगुरुलघुपरिणतिस्वरूपस्वभावपर्यायापेक्षया विभावव्यञ्जनपर्यायापेक्षया चानित्ये । 'कारणा' पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्यशरीरवाङ्मनःप्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवत नाकार्याणि कुर्वन्तीति कारणानि भवंति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पद्गलादिपंचद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् । 'कत्ता' शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि बंधमोक्षद्रव्यभावरूपपण्यपापघटपटादीनामकर्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणतः सन् पण्यपापबंधयोः कर्त्तातत्फलभोक्ता च भवति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मद्रव्यस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन तु परिणतः सन् मोक्षस्यापि कर्ता तत्फलभोक्ता चेति । शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति । पुद्गलादिपंचद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव क त्वम्, वस्तुवृत्त्या पुनः पुण्यपापादि
आकाश और काल ये चार द्रव्य क्रियाशून्य हैं । “णिच्च" धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य यद्यपि अर्थपर्याय के कारण अनित्य हैं, फिर भी मुख्य रूप से इनमें विभावव्यंजन पर्याय नहीं होती इसलिये ये नित्य हैं, द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा भी नित्य है। जीव, पुद्गल द्रव्य यद्यपि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नित्य हैं ! तो भी अगुरुलघुगुण के परिणाम रूप स्वभाव पर्याय की अपेक्षा तथा विभावव्यंजन पर्याय की अपेक्षा अनित्य हैं। 'कारण' पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्यों में से व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, निःश्वास अदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है और गति, स्थिति, अवगाह तथा वर्तना रूप कार्य क्रम से धर्म आदि चार द्रव्य करते हैं; इस कारण पुद्गलादि पांच द्रव्य 'कारण' हैं । जीवद्रव्य यद्यपि गुरु, शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है फिर भी पुद्गल आदि पांच द्रव्यों के लिये जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिये 'अकारण' है । “कत्ता” शुद्ध पारिणामिक परमभाव के प्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जीव यद्यपि बंध मोक्ष के कारणभूत द्रव्य-भाव रूप पुण्य, पाप, घट, पट आदि का कर्ता नहीं है किन्तु अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शुभ, अशुभ उपयोगों में परिणत हो कर पुण्य, पाप बंध का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता होता है। तथा विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज शुद्ध आत्मा द्रव्य के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप शुद्धोपयोग से परिणत होकर यह जीव मोक्ष का भी कर्त्ता और उसके फल का भोगने वाला होता है। यहाँ सब जगह शुभ, अशुभ तथा शुद्ध परिणामों के परिणमन का ही कर्ता जानना चाहिए।
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