________________
गाथा १.]
प्रथमाधिकारः व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापकः, न च प्रदेशापेक्षया नैयायिकमीमांसकसांख्यमतवत् । तथैव पञ्चेन्द्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदनलक्षणयोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेन्द्रियबोधाभावाज्जडः, न च सर्वथा सांख्यमतवत् । तथा रागादिविभावपरिणामापेक्षया शून्योऽपि भवति, न चानन्तज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् । किञ्च-अणुमात्रशरीरशब्देनात्र उत्सेधधनाङ्गुलासंख्येभागप्रमितं लब्ध्यपूर्णसूक्ष्मनिगोदशरीरं ग्राह्यम् , न च पुग्दलपरमाणुः । गुरुशरीरशब्देन च योजनसहस्रपरिमाणं महामत्स्यशरीरं मध्यमावगाहेन मध्यमशरीराणि च । इदमत्रतात्पर्यम्-देहममत्वनिमिशेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति । एवं स्वदेहमात्रव्याख्यानेन गाथा गता ॥ १०॥
अतः परं गाथात्रयेण नयविभागेन संसारिजीवस्वरूपं तदवसाने शुद्धजीवस्वरूपं च कथयति । तद्यथा :
मानते हैं, वैसा नहीं है । इसी तरह पांचों इन्द्रियों और मन के विषयों के विकल्पों से रहित जो ध्यान का समय है उस समय आत्म-अनुभव रूप ज्ञान के विद्यमान होने पर भी बाहरी विषय रूप इन्द्रिय ज्ञान के अभाव से प्रात्मा जड़ माना गया है परन्तु सांख्य मत की तरह अात्मा सर्वथा जड़ नहीं है। इसी तरह आत्मा राग द्वष आदि विभाव परिणामों की अपेक्षा से ( उनके न होने से ) शून्य होता है, किन्तु बौद्ध मत के समान अनन्त ज्ञानादि की अपेक्षा शून्य नहीं है।
विशेष-अणुमात्र शरीर आत्मा है, यहाँ अणु शब्द से उत्सेधधनांगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण जो लब्धि-अपर्याप्तक सूक्ष्म-निगोद शरीर है, उस शरीर का ग्रहण करना चाहिये किन्तु पुद्गल परमाणु का ग्रहण न करना चाहिये । एवं गुरु शरीर शब्द से एक हजार योजन प्रमाण जो महामत्स्य का शरीर है उसको ग्रहण करना चाहिये, और मध्यम अवगाहना से मध्यम शरीरों का ग्रहण है । तात्पर्य यह है-जीव देह के साथ ममत्व के निमित्त से देह को ग्रहण कर संसार में भ्रमण करता है, इसलिये देह आदि के ममत्व को छोड़कर निर्मोह अपने शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिये। इस प्रकार 'जीव स्वदेह-मात्र है' इस व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ।। १० ।।
अब तीन गाथाओं द्वारा नय विभाग पूर्वक संसारी जीव का स्वरूप और उसके अन्त में शुद्ध जीव का स्वरूप कहते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org