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गाथा २२]
प्रथमाधिकारः किञ्च-स्वयं विषयानुभवरहितोऽप्ययं जीवः परकीयविषयानुभवं दृष्टम् श्रुतं च मनसि रमृत्वा यद्विषयाभिलाषं करोति तदपध्यानं भण्यते तत्प्रभृतिसमस्तजालरहितं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखरसास्वादसहितं यत्तद्वीतरागचारित्रं भवति । यत्पुनस्तदविनाभूतं तन्निश्चय सम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं चेति भण्यते । तदेव कालत्रयेऽपि मुक्तिकारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति ततः स हेय इति । तथाचोक्तम्- "किं पल्लविएण बहुणा जे सिद्धा परवरा गए काले । सिद्धिहंहि जेवि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥" इदमत्र तात्पर्यम्-कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किन्तु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विवादो न कर्तव्यः । कस्मादिति चेत् ? विवादे रागद्वषो भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति ।। २२ ॥
एवं कालद्रव्यव्याख्यानमुख्यतया पञ्चमस्थले सूत्रद्वयं गतं । इतिगाथाष्टकसमुदायेन पंचभिः स्थलैः पुद्गलादिपंचविधाजीवद्रव्यकथनरूपेण द्वितीयो अन्तराधिकारः समाप्तः ।
करने में सौ दिन हो गये ? किन्तु एक ही दिन लगेगा। इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है।
__ तथा स्वयं विषयों के अनुभव से रहित भी यह जीव अन्य के द्वारा अनुभव किए हुए, देखे हुए, सुने हुए विषय को मन में स्मरण करके विषयों की इच्छा करता है उसको अपध्यान कहते हैं। उस विषय-अभिलाषा आदि समस्त विकल्पों से रहित और आत्मअनुभव से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्दरूप सुख के रस आस्वाद से सहित वीतराग चारित्र होता है और जो उस वीतराग चारित्र से अविनाभूत है वह निश्चय सम्यक्त्व तथा वीतराग सम्यक्त्व है । वह निश्चय सम्यक्त्व ही तीनों कालों में मुक्ति का कारण है। काल तो उस निश्चय सम्यक्त्व के असाव में वीतराग चारित्र का सहकारी कारण भी नहीं होता; इस कारण कालद्रव्य हेय है। ऐसा कहा भी है-'बहुत कहने से क्या; जो श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं व होंगे; वह सब संम्यक्त्व का माहात्म्य है।" यहाँ तात्पर्य यह है कि कालद्रव्य तथा अन्य द्रव्योंके विषयमें परम-आगम के अविरोध से ही विचारना चाहिए; 'वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है" ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवाद में राग-द्वष उत्पन्न होते हैं और उन राग-द्वषों से संसार की वृद्धि होती है ।। २२॥
इस प्रकार कालद्रव्य के व्याख्यान की मुख्यता से पांचवे स्थल में दो गाथा हुई। इस प्रकार आठ गाथाओं के समुदाय रूप पांचवे स्थल से पुद्गलादि पांच प्रकार के अजीव द्रव्य के कथन द्वारा दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ।
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