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गाथा २७] प्रथमाधिकारः
[७३ __व्याख्या- "जोवदियं प्रायासं अविभागीपुग्गलाणुउद्दद्धतं खुः पदेसं जाणे" यावत्प्रमाणमाकाशमविभागिपुद्गलपरमाणुना विष्टब्धं व्याप्तं तदाकाशं खु स्फुटं प्रदेशं जानीहि । हे शिष्य ! कथंभूतं “सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं" सर्वानां सर्वेपरमाणूनां सूक्ष्मस्कन्धानां च स्थानदानस्यावकाशदानस्याह योग्यं समर्थमिति । यत एवेत्थंभूतावगाहनशक्तिरस्त्याकाशस्य तत एवासंख्यातप्रदेशेऽपि लोके अनन्तानन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणपुद्गला अवकाशं लभन्ते । तथा चोक्तम्, जीवपुद्गल विषयेऽवकाशदानसामर्थ्यम् “एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥१॥ोगाढगाढणिचिदो पोग्गलकाएहिं सव्वदो लोगो। सुहमेहिं बादरेहिं य ताणतेहिं विविधेहिं ॥२॥" अथ मतं मूपुद्गलानां विभागो भेदो भवतु नास्ति विरोधः, अमूर्ताखण्डस्याकाशद्रव्यस्य कथं विभागकल्पनेति ? तन्न । रागाधुपाधिरहितस्वसंवेदनप्रत्यक्षभावनोत्पन्नसुखामृतरसास्वादतृप्तस्य मुनियुगलस्यावस्थानक्षेत्रमेकमनेकं वा । यद्येकं, तर्हि द्वयोरेकत्वं प्रामोति, न च तथा । भिन्नं चेत्तदा निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति ॥२७॥ एवं सूत्रपञ्चकेन पञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा तृतीयोऽन्तराधिकारः ॥ इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तदेवविरचिते द्रव्यसंग्रहग्रन्थे नमस्कारादिसप्तविंशतिगाथाभिरन्तराधिकारत्रयसमुदायेन षड्द्रव्यपश्चास्तिकायप्रतिपादकनामाप्रथमोधिकारः समाप्तः।
वृत्त्यर्थ :-"जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउदृद्ध तं खु पदेसं जाणे" हे शिष्य ! जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु से घिरा है उसको स्पष्ट रूप से प्रदेश जानो । वह प्रदेश “सव्वाणुट्ठाणदाणरिह" सब परमाणु और सूक्ष्म स्कन्धों को स्थान देने के लिये समर्थ है, क्योंकि ऐसी अवगाहन शक्ति आकाश में है। इसी कारण असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव तथा उन जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल समा जाते हैं । इसी प्रकार जीव और पुद्गल के विषय में भी अवकाश देने की सामर्थ्य आगम में कही है । “एक निगोद शरीर में द्रव्य-प्रमाण से भूतकाल के सब सिद्धों से भी अनंतगुणे जीव देखे गये हैं। १। यह लोक सब तरफ से विविध तथा अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलों द्वारा अतिसघन भरा हुआ है ।२।"
यदि किसी का ऐसा मत हो कि "मूर्तिमान पुद्गलों के तो अणु तथा स्कन्ध आदि विभाग हों, इसमें तो कुछ विरोध नहीं; किन्तु अखंड, अमूर्तिक आकाश की विभाग कल्पना कैसे हो सकती है ?" यह शंका ठीक नहीं; क्योंकि राग आदि उपाधियों से रहित निजआत्म-अनुभव की प्रत्यक्ष भावना से उत्पन्न सुख रूप अमृत रस के आस्वादन से तृप्त ऐसे दो
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