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गाथा १६]
प्रथमाधिकारः संस्कृतप्राकृतापभ्रंशपैशाचिकादिभाषाभेदेनार्यम्लेच्छमनुष्यादिव्यवहारहेतुर्बहुधा । अनक्षरात्मकस्तु द्वीन्द्रियादितिर्यग्जीवेषु सर्वज्ञदिव्यध्वनौ च । अभाषात्मकोऽपि प्रायोगिकवैश्रसिकभेदेन द्विविधः । “ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् । धनं तु कांस्यतालादि सुषिरं वंशादिकं विदुः।१।" इति श्लोककथितक्रमेण प्रयोगे भवः प्रायोगिकश्चतुर्धा भवति । विश्रसा स्वभावेन भवो वैश्रसिको मेघादिप्रभवो बहुधा । किश्च शब्दातीतनिजपरमात्मभावनाच्युतेन शब्दादिमनोज्ञामनोज्ञपञ्चेन्द्रियविषयासक्तेन च जीवेन यदुपार्जितं सुस्वरदुःस्वरनामकर्म तदुदयेन यद्यपि जीवे शब्दो दृश्यते तथापि स जीवसंयोगेनोत्पन्नत्वाद् व्यवहारेण जीवशब्दो भण्यते, निश्चयेन पुनः पुद्गलस्वरूप एवेति । बन्धः कथ्यते-मृत्पिण्डादिरूपेण योऽसौ बहुधा बंधः स केवलः पुद्गलसंधः, यस्तु कर्मनोकर्मरूपः स जीवपुद्गलसंयोगबंधः । किञ्च विशेषः--कर्मबंधपृथग्भूतस्वशुद्धात्मभावनारहितजीवस्यानुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यबंधः, तथैवाशुद्धनिश्चयेन योऽसौ रागादिरूपो भावगंधः कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चयनयेन पुद्गलबंध एव । बिल्वाद्यपेक्षया बदरादीनां सूक्ष्मत्वं, परमाणो:
क्षरात्मक रूप से दो तरह का है। उनमें भी अक्षरात्मक भाषा, संस्कृत-प्राकृत और उन के अपभ्रंश रूप पैशाची आदि भाषाओं के भेद से आर्य व म्लेत मनुष्यों के व्यवहार के कारण अनेक प्रकार की है। अनवरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय आदि तियच जीवों में तथा सर्वज्ञ की दिव्य ध्वनि में है । अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो तरह का है। उनमें “वीणा आदि के शब्द को तत, ढोल आदि के शब्द को वितत, मंजीरे तथा ताल आदि के शब्द को धन और बंसी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं। १ ।” इस श्लोक में कहे हुए क्रम से प्रायोगिक (प्रयोग से पैदा होने वाला) शब्द चार तरह का है; "विश्रसा" अर्थात् स्वभाव से होने वाला वैश्रसिक शब्द बादल आदि से होता है वह अनेक तरह का है । विशेष-शब्द से रहित निज परमात्मा की भावना से छूटे हुए तथा शब्द आदि मनोज्ञअमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव ने जो सुस्वर तथा दुःस्वर नाम कर्म का बंध किया उस कर्म के उदय के अनुसार यद्यपि जीव में शब्द दिखता है तो भी वह शब्द जीव के संयोग से उत्पन्न होने के निमित्ति से व्यवहार नय की अपेक्षा 'जीव का शब्द' कहा जाता है; किन्तु निश्चय नय से तो वह शब्द पुद्गल मयी ही है। अब बंध को कहते हैंमिट्टी आदि के पिंड रूप जो बहुत प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गल बंध है । जो कर्म, नोकर्म रूप बंध है वह जीव और पुद्गल के संयोग से होनेवाला बंध है। विशेष यह हैकर्मबन्ध से भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा की भावना से रहित जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्य बंध है और उसी तरह अशुद्ध निश्चय नय से जो वह रागादिक रूप भावबन्ध कहा जाता है; यह भी शुद्ध निश्चय नय से पुद्गल का ही बन्ध है। वेल आदि
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