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५२ ] वृहद्र्व्यसंग्रहः
[गाथा १६ साक्षादिति बदराद्यपेक्षया बिल्वादीनां स्थूलत्वं, जगद्व्यापिनि महास्कंधे सर्वोत्कृष्टमिति । समचतुरस्रन्यग्रोधसातिककुब्जबामनहुण्डभेदेन षट्प्रकारसंस्थानं यद्यपि व्यवहारनयेन जीवस्यास्ति तथाप्यसंस्थानाच्चिच्चमत्कारपरिणतेभिन्नत्वान्निश्चयेन पुद्गलसंस्थानमेव; यदपि जीवादन्यत्र वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणादिव्यक्ताव्यक्तरूपं बहुधा संस्थानं तदपि पुद्गल एव । गोधूमादिचूर्णरूपेण घृतखण्डादिरूपेण बहुधा भेदो ज्ञातव्यः । दृष्टिप्रतिबंधकोऽन्धकारस्तम इति भण्यते । वृक्षाद्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रतिबिम्बरूपा च छाया विज्ञेया। उद्योतश्चंद्रविमाने खद्योतादितिर्यग्जीवेषु च भवति। आतप आदित्यविमाने अन्यत्रापि सूर्यकांतमणिविशेषादौ पृथ्वीकाये ज्ञातव्यः । अयमत्रार्थः- यथा जीवस्य शुद्धनिश्चयेन स्वात्मोपलब्धिलक्षणे सिद्धस्वरूपे स्वभावव्यञ्जनपर्याये विद्यमानेऽप्यनादिकर्मबंधवशात् स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वषपरिणामे सति स्वाभाविकपरमानंदै कलक्षणस्वास्थ्यभावभ्रष्ट नरनारकादिविभावव्यञ्जनपर्याया भवन्ति तथा पुद्गलस्यापि निश्चयनयेन शुद्धपरमाण्ववस्थालक्षणे स्वभावव्यञ्जनपर्याये सत्यपि स्निग्धरूक्षत्वादांधो भवतीति वचनाद्रागद्बषस्थानीयबंध
की अपेक्षा बेर आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है (परमाणु की सूक्ष्मता किसी की अपेक्षा से नहीं है)। बेर आदि की अपेक्षा बेल आदि में स्थूलता (बड़ापन) है; तीन लोक में व्याप्त महास्कन्ध में सबसे अधिक स्थूलता है । समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक, कुब्जक, वामन और हुँडक ये ६ प्रकार के संस्थान व्यवहार नय से जीव के होते हैं। किन्तु संस्थान शून्य चेतन चमत्कार परिणाम से भिन्न होने के कारण निश्चय नय की अपेक्षा संस्थान पुद्गल का ही होता है जो जीव से भिन्न गोल, त्रिकोन, चौकोर आदि प्रगट, अप्रगट अनेक प्रकार के संस्थान हैं, वे भी पुद्गल के ही हैं । गेहूं आदि के चून रूप से तथा घी, खांड आदि रूप से अनेक प्रकार का 'भेद' (खंड) जानना चाहिये । दृष्टि को रोकने वाला अन्धकार है उसको 'तम" कहते हैं। पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली तथा मनुष्य
आदि की परछाई रूप जो है उसे "छाया" जानना चाहिये। चन्द्रमा के विमान में तथा जुगनू आदि तिर्यञ्च जीवों में "उद्योत" होता है। सूर्य के विमान में तथा अन्यत्र भी सूर्यकांत विशेष मणि आदि पृथ्वीकाय में "आतप" जानना चाहिये । सारांश यह है कि जिस प्रकार शुद्धनिश्चयनय से जीव के निज-आत्मा की उपलब्धिरूप सिद्ध-स्वरूप में स्वभावव्यञ्जन पर्याय विद्यमान है फिर भी अनादि कर्मबंधन के कारण पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष गुण के स्थानभूत राग द्वष परिणाम होने पर स्वाभाविक-परमानन्दरूप एक स्वास्थ्य भाव से भ्रष्ट हुए जीवके मनुष्य, नारक आदि विभाव-व्यंजन-पर्याय होते हैं, उसी तरह पुद्गल में निश्चयनय की अपेक्षा शुद्ध परमाणु दशारूप स्वभाव-व्यञ्जन-पर्याय के विद्यमान होते हुए भी "स्निग्ध तथा रूक्षता से बन्ध होता है।" इस वचन से राग और द्वष के
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