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गाथा २१] प्रथमाधिकारः
__ [६१ गुणा दृश्यन्ते । तथा पुद्गलपरमाणुनयनपटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरविम्बरूपैः पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतैः समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणाः प्राप्नुवन्ति, न च तथा । उपादानकारणसदृशं कार्यमिति वचनात् । किं बहुना । योऽसावनाद्यनिधनस्तथैवामूर्तो नित्यः समयाछुपादानकारणभूतोऽपि समयादिविकल्परहितः कालाणुद्रव्यरूपः स निश्चयकालो, यस्तु सादिसान्तसमयघटिकाप्रहरादिविवक्षितव्यवहारविकल्परूपस्तस्यैव द्रव्यकालस्य पर्यायभूतो व्यवहारकाल इति । अयमत्र भावः । यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्वस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमस्तवहिद्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणरूपा या निश्चयचतुविधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यम् न च कालस्तेन स हेय इति । २१ ।
अथ निश्चयकालस्यावस्थानक्षेत्रं द्रव्यगणनां च प्रतिपादयति :
आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र-पलक विघटन, जल कटोरा, पुरुषव्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय हैं उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो कालपर्याय हैं उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिये; परन्तु समय घड़ी आदि में ये गुण नहीं दीख पड़ते, क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है ऐसा वचन है।
बहुत कहने से क्या लाभ । जो आदि तथा अन्त से रहित अमूर्त है, नित्य है, समय आदि का उपादानकारणभूत है तो भी समय आदि भेदों से रहित है और कालाणु द्रव्यरूप है, वह निश्चयकाल है और जो आदि तथा अन्त से सहित है; समय, घड़ी, पहर आदि व्यवहार के विकल्पों से युक्त है, वह उसी द्रव्यकाल का पर्याय रूप व्यवहारकाल है । सारांश यह कि यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तो भी विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव का धारक जो निज परमात्म तत्त्व का सम्यकश्रद्धान, ज्ञान आचरण और संपूर्ण बाह्य द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण वाला तपश्चरणरूप जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इससिये वह कालद्रव्य हेय है ॥२१॥
अब निश्चयकाल के रहने का क्षेत्र तथा काल द्रव्य की संख्या का प्रतिपादन . करते हैं:
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