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५४ ] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा १८ सिद्धवदनन्तज्ञानादिगुणस्वरूपोऽहमित्यादिव्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुक्तानां निश्चयेन निर्विकल्पसमाधिरूपस्वकीयोपादानकारणपरिणतानां भव्यानां सिद्धगतेः सहकारिकारणं भवति । तथा निष्क्रियोऽमूर्तो निष्प्रेरकोऽपि धर्मास्तिकायः स्वकीयोपादानकारणेन गच्छतां जीवपुद्गलानां गतेः सहकारिकारणं भवति । लोकप्रसिद्धदृष्टान्तेन तु मत्स्यादीनां जलादिवदित्यभिप्रायः । एवं धर्मद्रव्यव्याख्यानरूपेण गाथा गता ।। १७ ॥ अथाधर्मद्रव्यमुपदिशति :
ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥ १८ ॥ स्थानयुतानां अधर्मः पुद्गलजीवानां स्थानसहकारी।
छाया यथा पथिकानां गच्छतां नैव सः धरति ॥१८॥ व्याख्या-स्थानयुक्तानामधर्मः पुद्गलजीवानां स्थितेः सहकारिकारणं भवति। तत्र दृष्टान्तः--छाया यथा पथिकानाम् । स्वयं गच्छतो जीवपुद्गलान्स नैव धरतीति । तद्यथा-स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरूपं परमस्वास्थ्यं यद्यपि निश्चयेन
रहित हैं तथा किसी को प्रेरणा भी नहीं करते, तो भी "मैं सिद्ध के समान अनन्त ज्ञानादि
गुणरूप हूं" इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्धभक्ति के धारक और निश्चय से निर्विकल्पक ध्यानरूप अपने उपादान कारण से परिणत भव्यजीवों को वे सिद्ध भगवान सिद्ध गति में सहकारी कारण होते हैं। ऐसे ही क्रियारहित, अमूर्त प्रेरणारहित धर्मद्रव्य भी अपने अपने उपादान कारणों से गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को गमन में सहकारी कारण होता है। जैसे मत्स्य आदि के गमन में जल अदि सहायक कारण होने का लोक प्रसिद्ध दृष्टांत है, यह अभिप्राय है । इस तरह धर्म द्रव्य के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ।। १७ ।।
अब अधर्मद्रव्य को कहते हैं :
गाथार्थः- ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है । जैसे छाया यात्रियों को ठहरने में सहकारी है । गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलों को अधर्मद्रव्य नहीं ठहराता ॥ १८ ॥
वृत्त्यर्थ :-ठहरे हुए पुद्गल तथा जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है। उसमें दृष्टान्त-जैसे छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी कारण है। परन्तु स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों को अधर्मद्रव्य नहीं ठहराता है । सो ऐसे है यद्यपि निश्चय नय से आत्म-अनुभव से उत्पन्न सुखामृत रूप जो परम स्वास्थ्य है वह निज रूप में स्थिति का
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