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गाथा १६ ]
प्रथमाधिकारः
स्वरूपे स्थितिकारणं भवति तथा “सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं श्रतणाणाइगुणसमिद्धोऽहं । देहपमाणो णिच्चो संदेसो अत्तो य | १ | " इति गाथाकथित सिद्धभक्ति रूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति तथैव स्वकीयोपादानकारणेन स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामधर्मद्रव्यं स्थितेः सहकारिकारणम् । लोकव्यवहारेण तु छायावद्वा पृथिवीवद्व ेति सूत्रार्थः । एवमधर्मद्रव्यकथनेन गाथा गता ॥ १८ ॥
अथाकाशद्रव्यमाह :
श्रवगादाणजोग्गं जीवादीणं वियाण श्रायासं । जे लोगागा अल्लो गागासमिदि दुविहं ॥ १६ ॥
अवकाशदानयोग्यं जीवादीनां विजानीहि आकाशम् । जैनं लोकाकाशं लोकाकाशं इति द्विविधम् ॥ १६ ॥
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व्याख्या -जीवादीनामवकाशदानयोग्यमाकाशं विजानीहि हे शिष्य ! किं विशिष्टं ? “जेण्हं” जिनस्येदं जैनं, जिनेन प्रोक्त ं वा जैनम् । तच्च लोकालोका
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कारण है; परन्तु “मैं सिद्ध हूं; शुद्ध हूं; अनन्तज्ञान आदि गुणों का धारक हूँ; शरीर प्रमाण हूँ; नित्य हूँ; असंख्यात प्रदेशी हूँ तथा अमूर्त्तिक हूं । १ ।" इस गाथा में कही हुई सिद्ध भक्ति के रूप से पहले सविकल्प अवस्था में सिद्ध भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी तरह अपने २ उपादान कारण से अपने आप ठहरते हुए जीव पुद्गलों को धर्मद्रव्य ठहरने का सहकारी कारण होता है । लोक व्यवहार से जैसे छाया अथवा पृथिवी ठहरते हुए यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होती है उसी तरह स्वयं ठहरते हुए जीव पुद्गलों के ठहरने में अधर्मद्रव्य सहकारी होता है । इसी प्रकार अधर्म द्रव्य के कथन द्वारा यह गाथा समाप्त हुई ॥ १८ ॥
अब आकाशद्रव्य को कहते हैं :
गाथार्थ :—जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ आकाशद्रव्य जानो । लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदों से आकाश दो प्रकार का है ॥ १६ ॥
वृत्त्यर्थः -- हे शिष्य ! जीवादिक द्रव्यों को अवकाश ( रहने का स्थान ) देने की योग्यता जिस द्रव्य में है उसको श्री जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य समझो | वह आकाश, लोकाकाश तथा लोकाकाश इन भेदों से दो तरह का है। अब इसको विस्तार से
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