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३८ ] बृहद्रव्य संग्रहः
[ गाथा १३ योगप्रवृत्तिविसदृशपरमात्मद्रव्यप्रतिपन्थिनी' कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लभेदेन षड्विधा लेश्यामार्गणा । १० । भव्याभव्यभेदेन द्विविधा भव्यमार्गणा । ११ । अत्राह शिष्यः-शुद्धपारिणामिकपरमभावरूपशुद्धनिश्चयेन गुणस्थानमार्गणास्थानरहिता जीवा इत्युक्त पूर्वम् , इदानीं पुनर्भव्याभव्यरूपेण मार्गणामध्येऽपिं पारिणामिकभावो भणित इति पूर्वापरविरोधः ? अत्र परिहारमाह-पूर्व शुद्धपारिणामिकभावापेक्षया गुणस्थानमार्गणानिषेधः कृतः, इदानीं पुनर्भव्याभव्यत्वद्वयमशुद्धपारिणामिकभावरूपं मार्गणामध्येऽपि घटते । ननु-शुद्धाशुद्धभेदेन पारिणामिकभावो द्विविधो नास्ति किन्तु शुद्ध एव ? नैवं यद्यपि सामान्यरूपेणोत्सर्गव्याख्यानेन शुद्धपारिणामिकभावः कथ्यते तथाप्य पवादव्याख्यानेनाशुद्धपारिणामिकभावोऽप्यस्ति । तथाहि-"जीवभव्याभव्यत्वानि च" इति तत्त्वार्थसूत्रे त्रिधा पारिणामिकभावो भणितः, तत्र शुद्धचैतन्यरूपं जीवत्वमविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकभावो भएयते, यत्पुनः कर्मजनितदशप्राणरूपं
प्रकार की लेश्यामार्गणा है । १० । भव्य और अभव्य भेद से भव्यमार्गणा दो प्रकार की है । ११ ।
___ यहां शिष्य प्रश्न करता है कि-"शुद्धपारिणामिक परमभावरूप जो शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव गुणस्थान तथा मार्गणास्थानों से रहित है" ऐसा पहले कहा गया है
और अब यहाँ भव्य अभव्य रूप से मार्गणा भी अपने पारिणामिक भाव कहाः सो यह तो पूर्वापरविरोध है ? अब इस शंका का समाधान करते हैं-पूर्व प्रसंग में तो शुद्ध पारिणामिक भाव की अपेक्षा से गुणस्थान और मार्गणा का निषेध किया है और यहाँ पर अशुद्ध पारिणामिक भाव रूप से भव्य तथा अभव्य ये दोनों मार्गणा में भी घटित होते हैं। यदि कदाचित् ऐसा कहो कि “शुद्ध अशुद्ध भेद से पारिणामिक भाव दो प्रकार का नहीं है किन्तु पारिण.मिक भाव शुद्ध ही है" तो वह भी ठीक नहीं; क्योंकि, यद्यपि सामान्य रूप से पारिणामिक भाव शुद्ध है, ऐसा कहा जाता है, तथापि अपवाद व्याख्यान से अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है। इसी कारण "जीवभव्याभव्यत्वानि च" (अ.२ सु. ७) इस तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व इन भेदों से पारिणामिक भाव तीन प्रकार का कहा है। उनमें शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनश्वर होने के कारण शुद्ध द्रव्य के आश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है । तथा जो कर्म से उत्पन्न दश प्रकार के प्राणों रूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व भेद से तीन तरह का है और ये तीनों विनाशशील होने के कारण पर्याय के
१. "प्रतिपक्षी" इति पाठान्तरं
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