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गाथा १४]
. प्रथमाधिकारः वस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणा: स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्याः । संक्षेपरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विवक्षिताभेदनयेनानन्तज्ञानादिचतुष्टयम् , अनन्तज्ञानदर्शनसुखत्रयं, केवलज्ञानदर्शनद्वयं, साक्षादभेदनयेन शुद्धचैतन्यमेवैको गुण इति । पुनरपि कथंभूताः सिद्धाः ? चरमशरीरात् किञ्चिदूना भवन्ति । तत् किश्चिदूनत्वं शरीरोपाङ्गजनितनासिकादिच्छिद्राणामपूर्णत्वे सति यम्मिन्नेव क्षणे सयोगिचरमसमये त्रिंशप्रकृति-उदयविच्छेदमध्ये शरीरोपाङ्गनामकर्मविच्छेदो जातस्तस्मिन्नेव क्षणे जातमिति ज्ञातव्यम् । कश्चिदाह-यथा प्रदीपस्य भाजनाद्यावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति ? तत्र परिहारमाहप्रदीपसंबन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्व स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं; जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति यस्तु प्रदेशानां संबन्धी विस्तारः स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत् , पूर्व लोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति पश्चात् प्रदीपवदावरणं जातमेव । तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादिसन्तानरूपेण शरीरेणावृतास्तिष्ठन्ति ततः कारणात्प्रदेशानां संहारो न भवति, विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव, न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे
सुख तथा अनन्त वीर्य ये चार गुण अथवा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुखरूप तीन गुण अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो गुण हैं । और साक्षात् अभेदनयसे एक शुद्ध चैतन्य गुण ही सिद्धों का है । पुनः वे सिद्ध कैसे होते हैं ? चरम (अन्तिम) शरीरसे कुछ छोटे होते हैं । वह जो किंचित्-ऊनता है सो शरीरोपाङ्गसे उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों के अपूर्ण (खाली स्थान) होनेसे जिस समय सयोगी गुणस्थान के अन्त समय में तीस प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ उनमें शरीरोपाङ्ग कर्म का भी विच्छेद हो गया, अतः उसी समय किंचित् ऊनता हुई है । ऐसा जानना चाहिए।
कोई शंका करता है कि जैसे दीपक को ढकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक के प्रकाश का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों की
आत्मा भी फैलकर लोकप्रमाण होनी चाहिए ? इस शंका का उत्तर यह है-दीपक के प्रकाश का जो विस्तार है, वह तो पहले ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के
आवरण से संकुचित होता है । किन्तु जीव का लोकप्रमाण असंख्यात-प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशों का लोकप्रमाण-विस्तार स्वभाव नहीं है ।
यदि यों कहो कि जीव के प्रदेश पहले लोकके बराबर फैले हुए, आवरणरहित रहते हैं फिर जैसे प्रदीपके आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशों के भी आवरण हुआ है ? ऐसा नहीं है । किन्तु जीवके प्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तानरूप चले आये हुये शरीर
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