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बृहद्रव्य संग्रहः
[ गाथा १३
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अत्राह शिष्यः – केवलज्ञानोत्पत्तौ मोक्षकारणभूतरत्नत्रयपरिपूर्णतायां सत्यां तस्मिन्नेव क्षणे मोक्षेण भाव्यं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये कालो नास्तीति परिहारमाह — यथाख्यातचारित्रं जातं परं किन्तु परमयथाख्यातं नास्ति । अत्र दृष्टान्तः । यथा - चौरव्यापाराभावेऽपि पुरुषस्य चौरसंसर्गो दोष जनयति तथा चारित्र विनाशक चारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजने चरमममयं विहाय शेषाघातिकर्म तीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मन्दोदये सति चारित्रलाभावात् मोक्षं गच्छति । इति चतुर्दशगुणस्थानव्याख्यानं गतम् । इदानीं मार्गणाः कथ्यन्ते । “गइ इंदियेसु काये जोगे वेद कसायगाय । संयम दंसण लेस्सा भविया समत्तसरि हारे । १ ।" इति गाथाकथितक्रमेण गत्यादिचतुर्दशमार्गणा ज्ञातव्याः । तद्यथा - स्वात्मोपलब्धिसिद्धिविलक्षणा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिभेदेन चतुर्विधा गतिमार्गणा भवति । १ । अतीन्द्रियशुद्धात्मतत्वप्रतिपक्षमता के द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदेन पञ्चप्रकारेन्द्रि
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यहाँ शिष्य पृछता है कि केवल ज्ञान हो जाने पर जब मोक्ष के कारण भूतरत्नत्रय की पूर्णता हो गई तो उसी समय मोक्ष होना चाहिये, सयोगी और अयोगी इन दो गुण स्थानों में रहने का कोई समय ही नहीं है ?
इस शंका का परिहार करते हैं कि केवल ज्ञान हो जाने पर यथाख्यात चारित्र तो हो जाता है किन्तु परम यथाख्यात चारित्र नहीं होता है । यहाँ दृष्टान्त है - जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता, किन्तु उसको चोर के संसर्ग का दोष लगता है, उसी तरह सयोग केवलियों के चारित्र के नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है तो भी निष्क्रिय शुद्ध आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है । तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अन्त समय को छोड़कर शेष
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अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषरण उत्पन्न करता है और अन्तिम समय में अघातिया कर्मों का मन्द उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से योगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
चौदह मार्गणाओं को कहते हैं "गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा तथा आहार । १ ।” इस तरह क्रम से गति आदि चतुर्दश मार्गणा जाननी चाहिये । निज आत्मा की प्राप्ति से विलक्षण नारक, तिर्यक मनुष्य तथा देवगति भेद से गतिमार्गणा चार प्रकार की है- १. अतीन्द्रिय; शुद्ध आत्मतत्त्व के प्रतिपक्षभूत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय भेद से
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