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गाथा १३ ]
प्रथमाधिकारः
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पुण्णेन | १ | दस सरणीणं पाणा सेसेगूगंति मस्सवे ऊरगा । पज्जतेसिदरेसु य सतदुगे से सगेगूणा | २|" इति गाथाद्वयकथितक्रमेण यथासंभवमिन्द्रियादिदशप्राणाश्च विज्ञेयाः । अत्रैतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः ॥ १२॥
अथ शुद्ध पारिणामिकपरमभावग्राह केण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावा श्रपि जीवाः पश्चादशुद्धनयेन चतुर्दशमार्गणास्थान चतुर्दशगुणस्थानसहिता भवन्तीति प्रतिपादयति :
मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धगया । विण्या संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धगया ॥ १३ ॥
मार्गणागुणस्थानैः चतुर्दशभिः भवन्ति तथा अशुद्धनयात् । विज्ञेयाः संसारिणः सर्व्वे शुद्धाः खलु शुद्धनयात् ॥ १३ ॥ व्याख्याः–“मग्गणगुणठाणेहि य़ हवंति तह विण्णेया" यथा पूर्वसूत्रोदि
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अपर्याप्त दोनों ही के होते हैं । श्वासोच्छवास पर्याप्त के ही होता है । वचन बल प्राण पर्याप्तद्वन्द्रिय आदि के ही होता है । मनोबल प्रारण संज्ञीपर्याप्त के ही होता है | १ | 'पर्याप्त अवस्था में संज्ञी पञ्चेन्द्रियों के १० प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियों के मन के बिना ६ प्राण, चौइन्द्रियों के मन और कर्ण इन्द्रिय के बिना प्राण, तीन इन्द्रियों के मन, कर्ण और चक्षु के बिना ७ प्राण, दो इन्द्रियों के मन, कर्ण, चक्षु और व्राण के बिना ६ प्राण और एकेन्द्रियों के मन, कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना तथा वचन बल के बिना ४ प्राण होते हैं । अपर्याप्त जीवों में संज्ञी तथा असंज्ञी इन दोनों पंचेन्द्रियों के श्वासोच्छवास, वचनबल और मनोबल के बिना ७ प्रारण होते हैं और चौइन्द्रिय से एकेन्द्रिय तक क्रम से एक एक प्राण घटता हुआ है । २ ।' इन दो गाथाओं द्वारा कहे हुये क्रम से यथासंभव इन्द्रियादिक दश प्राण समझने चाहियें । अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्तियों तथा प्राणों से भिन्न अपना शुद्ध आत्मा ही उपादेय है ।। १२ ।।
अब शुद्ध पारिणामिक परम भाव का ग्राहक जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसकी अपेक्षा सब जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं तो भी अशुद्धमय से चौदह मार्गणा स्थान और चौदह गुणस्थानों सहित होते हैं, ऐसा बतलाते हैं :
गाथार्थ - संसारी जीव अशुद्ध नय की दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुण स्थानों के भेद से चौदह २ प्रकार के होते हैं और शुद्धनय से सभी संसारी जीव शुद्ध हैं । वृत्त्यर्थः – “मग्गणगुरणठा रोहि य हवंति तह विरणेया" जिस प्रकार पूर्व गाथा में
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