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गाथा ५] प्रथमाधिकारः
[१५ विपरीताभिनिवेशरहितत्वेन सम्यग्दृष्टिजीवस्य सम्यग्ज्ञानानि भवन्ति । "मणापज्जवकेवलमवि" मनः पर्ययज्ञानं कंवलज्ञानमप्येवमष्टविधं ज्ञानं भवति । "पच्चक्वपरोक्खभेयं च” प्रत्यक्षपरोक्षभेदं च । अवधिमन:पर्यद्वयमेकदेशप्रत्यक्षं विभङ्गावधिरपि देशप्रत्यक्षं, केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्ष शेषचतुष्टयं परोक्षमिति ।
इतोविस्तर:-आत्मा हि निश्चयनयेन सकलविमलाखण्डकपत्यक्षपूतिभासमयकेवलज्ञानरूपस्तावत् । स च व्यवहारेणानादिकर्मबन्धपूच्छादितः सन् मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरापक्षयोपशमाच्च बहिरङ्गपञ्चेन्द्रियभनोऽव - लम्बनाच्च मुर्तामम् वस्त्वेकदेशेन विकल्पाकारेण परोक्षरुपेण सांव्यवहारिकपत्यक्षरूपेण वा यज्जानाति तत्वायोपशमिकं मतिज्ञानम् । किञ्च छमस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशमः केवलिनां तु निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्युत्पत्ती सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः । संव्यवहारलक्षणं कथ्यते-समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः । पवृत्तिनिवृत्तिलक्षणः संव्यवहारो भएयते । संव्यवहारे भवं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि । तथैव श्रुतज्ञाना
के उदय के वश से विपरीताभिनिवेश रूप अज्ञान होते हैं इसीसे कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि [विगावधि इनके नाम हैं; तथा वे ही मति, श्रुत तथा अवधि ज्ञान आत्मा
आदि तत्त्व के विषय में विपरीत श्रद्धा न होने के कारण सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्ज्ञान होते हैं । इस तरह कुमति आदि तीन अज्ञान और मति आदि तीन ज्ञान; ज्ञान के ये ६ भेद हुए तथा "मणपज्जवकेवलमपि" मनःपर्यय और केवल ज्ञान ये दोनों मिलकर ज्ञान के सब आठ भेद हुए । “पञ्चक्खपरोक्खभेयं च" प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद रूप है। इन आठों में अवधि और मनःपर्यय ये दोनों तथा विभंगावधि तो देश प्रत्यक्ष है और केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है; शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुत ये चार परोक्ष हैं।
विस्तार-जैसे आत्मा निश्चयनय से पूर्ण, विमल अखंड एक प्रत्यक्ष केवल ज्ञानस्वरूप है । वही आत्मा व्यवहारनय से अनादिकालीन कर्मबन्ध से आच्छादित हुआ, मतिज्ञान के
आवरण के क्षयोपशम से तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से और बहिरंग पांच इन्द्रिय तथा मन के अवलम्बन से मूर्त और अमूर्त वस्तु को एक देश से विकल्पाकार परोक्ष रूप से अथवा संव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से जो जानता है वह क्षायोपशमिक "मतिज्ञान" है। छद्मस्थों के तो वीर्यान्तराय का क्षयोपशम सर्वत्र ज्ञान चरित्र आदि की उत्पत्ति में सहकारी कारण है और केवलियों के वीर्यान्तराय का सर्वथा क्षय, ज्ञान चरित्र आदि की उत्पत्ति में सर्वत्र सहकारी कारण है; ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए । अब सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण कहते है--समीचीन अर्थात् ठीक जो व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है; संव्यवहार का लक्षण प्रवृत्ति निवृत्ति रूप है । संव्यवहार में जो हो सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। जैसेयह घटका रूप मैंने देखा इत्यादि। ऐसे ही श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और
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