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बृहद्र्व्यसंग्रहः
[ गाथा १ देवास्तेषां जिनवराणां वृषभः प्रधानो जिनवरबृषभस्तीर्थकरपरमदेवस्तेन जिनवरवृषभेणेति । अत्राध्यात्मशास्त्र यद्यपि सिद्धपरमेष्ठिनमस्कार उचितस्तथापि व्यवहारनयमाश्रित्य प्रत्युपकारस्मरणार्थमहत्परमेष्ठिनमस्कार एव कृतः । तथा चोक्त"श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ॥ १ ॥" अत्र गाथापरार्धेन-"नास्तिकत्वपरिहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावप्तिश्च निर्विघ्न शास्त्रादौ तेन संस्तुतिः ॥२॥" इति श्लोककथितफलचतुष्टयं समीक्षमाणा ग्रन्थकाराः शास्त्रादौ त्रिधा देवतायै त्रिधा नमस्कारं कुर्वन्ति । त्रिधा देवताकथ्यते । केन प्रकारेण ? इष्टाधिकृताभिमतभेदेन । इष्टः स्वकीयपूज्यः (१) । अधिकृतः-ग्रन्थस्यादौ प्रकरणस्य वा नमस्करणीयत्वेन विवक्षितः (२)। अभिमतः-सर्वेषां लोकानां विवादं विना सम्मतः (३) । इत्यादिमङ्गलव्याख्यानं सूचितम् । मङ्गलमित्युपलक्षणम् । उक्त च-मङ्गलणिमित्तहेउ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमायरिओ ॥ १ ॥"
उनमें जो वर-श्रेष्ठ हैं वे जिनवर यानी गणधरदेव हैं, उन जिनवरों-गणधरों में भी जो प्रधान है; वह जिनवरबृषभ' अर्थात् तीर्थकर परमदेव हैं। उन जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये हैं, इति ।
आध्यात्मिक शास्त्र में यद्यपि सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार करना उचित है तो भी व्यवहारनय का अवलम्बन लेकर जिनेन्द्र के उपकार-स्मरण करने के लिये अर्हतपरमेष्ठी को ही नमस्कार किया है। ऐसा कहा भी है कि "अर्हत्परमेष्ठी के प्रसाद से मोक्ष-मार्ग की सिद्धि होती है । इसलिये प्रधान मुनियों ने शास्त्र के प्रारम्भ में अर्हत्परमेष्ठी के गुणों की स्तुति की है ॥ १ ॥” यहां गाथा के उत्तरार्ध से "१ नास्तिकता का त्याग; २ सभ्य पुरुषों के आचरण का पालन; ३ पुण्य की प्राप्ति और ४ विघ्न-विनाश, इन चार लाभों के लिये शास्त्र के आरम्भ में इष्टदेव की स्तुति की जाती है ॥ १॥" इस तरह श्लोक में कहे हुए चार फलों को देखते हुए शास्त्रकार तीन प्रकार के देवता के लिये मन, वचन और काय द्वारा नमस्कार करते हैं । तीन प्रकार के देवता कहे जाते हैं। किस प्रकार ? इष्ट; अधिकृत और अभिमत ये तीन भेद हैं । 'इष्ट'-अपने द्वारा पूज्य वह इष्ट है (१)। 'अधिकृत'-ग्रन्थ अथवा प्रकरण के आदि में नमस्कार करने के लिये जिस की विवक्षा की जाती है वह अधिकृत है (२)। 'अभिमत'-विवाद बिना सब लोगों को सम्मत हो; वह अभिमत है (३)। इस तरह मङ्गल का व्याख्यान किया।
यहाँ मङ्गल यह उपलक्षण पद है । कहा भी है कि "आचार्य १ मङ्गलाचरण; २ शास्त्र बनाने का निमित्त-कारण; ३ शास्त्र का प्रयोजन; ४ शास्त्र का परिमाण यानी श्लोकसंख्या: ५ शास्त्र का नाम और शास्त्र का कर्ता, इन छः अधिकारों को बतला करके शास्त्र का
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