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( १५ )
सुरतम प्राचीनकाल में ज्योतिषशास्त्र के मर्मज्ञ महर्षियों ने उच्च एवं नीच की कल्पना की थी । सिद्धान्त स्कन्ध या हिन्दू गणित शास्त्र में उच्च एवं नीच का विस्तार से विवेचन किया गया है । यहाँ उच्च से तात्पर्य है ग्रह की कक्षा ( भ्रमण मार्ग ) का वह बिन्दू जो भू- केन्द्र से अधिकतम दूरी पर स्थित है, और नीच ग्रह कक्षा का वह स्थान है जो भू-केन्द्र के निकटतम है ।
उच्च और नीच की इस कल्पना का फलितार्थ फलित के ग्रन्थों में इस रूप में लिया गया कि उच्च और नीच स्थित ग्रह भूमि से दूरतम और निकटतम होने के कारण भूमि एवं भौतिक पदार्थों पर विशेष प्रभाव डालते हैं । फलितशास्त्र के आचार्यों की मान्यता है कि जिन राशियों पर आकर ग्रह अपने उत्तम एवं अधम प्रभाव (फल) विशेष रूप से डालते (देते) हैं, उन्हें क्रमश: उच्च एवं नीच राशि कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिस राशि में स्थित ग्रह अपने उत्तम फल को विशेष रूप से देता है, वह उसकी उच्च राशि है; तथा जिस राशि में स्थित होकर वह अपने अधम ( निकृष्ट ) फल को विशेष रूप से देता है, वह उसकी नीच राशि है । इसलिए उच्च राशि में स्थित ग्रह फल परम शुभ तथा नीच राशि में स्थित ग्रह का फलपरम अशुभ माना गया है ।
सूर्य की मेष; चन्द्रमा की वृषभ मंगल की मकर; बुध की कन्या, गुरु की कर्क; शुक्र की मीन एवं शनि की तुला उच्च राशि होती है ।
उच्च से ७वीं राशि नीच राशि होती है । अत: सूर्य की तुला; चन्द्रमा की वृश्चिक; मंगल की; कर्क, बुध की मीन; गुरु की मकर; शुक्र की कन्या एवं शनि की मेष राशि नीच राशि मानी जाती है ।
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