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सामायिक पाठ, मंत्र आदि के उच्चारण के सिवाय अन्य वचन न बोलना मौन रहना बचन शुद्धि है। हाथ पैर धोकर या स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनना आदि काय शुद्धि है। देव, शास्त्र, गुरु, चैत्य, चैत्यालय प्रादि के लिये विनय भावना रखना विनय शुद्धि है।
सामायिक करने की विधि सबसे पहले पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर मुख करके खड़ा हो फिर नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर ढोक दे (दंडवत नमस्कार करें)। तदनन्तर उसी तरह खड़े होकर बार णमोकार मन्त्र पढ़कर तीन पावर्त (दोनों जुड़े हये हाथों को बांयी ओर से दाहिनी पोर तीन बार घुमाना) और एक शिरोनति (नमस्कार) करे। तत्पश्चात् दाहिने हाथ को पोर खड़े घम जावे और वार णमोकार मन्त्र पढ़े फिर तीन पावर्त, एक शिरोनति करे। इसके बाद दाहिने हाथ की ओर घम जावे, उस ओर भी बार णमोकार मन्त्र पढ़कर ३ पावर्त, १ शिरोनति करे, तत्पश्चात् दाहिनी ओर घमकर भी बार णमोकार मन्त्र पढ़ कर ३ावर्त, एक शिरोनति करे। यह सब कर लेने के बाद उसी पूर्व या उत्तर दिशा की ओर खड़े होकर या बैठकर सामायिक करे।
सामायिक करते समय अपने मन को एकाग्र करे, प्रात्म चिन्तवन करे कि मैं निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानन्द रूप हं. अर्हत सिद्ध भगवान का रूप मेरे भीतर भी है, कर्म का पर्दा हटाते ही मेरा वह शुद्ध रूप प्रगट हो जायेगा, संसार में मेरा कोई भी पदार्थ नहीं, मैं सबसे अलग हैं, सब पदार्थ मुझसे जुदे हैं, संसार में मेरा न कोई मित्र है, न शत्रु समस्त जीवों के साथ मेरा समता भाव है। इत्यादि।
जब तक चित्त ऐसे मात्मचिन्तवन में ठहरे तब तक ऐसा चिन्तवन करता रहे। फिर श्री अमिति गति प्राचार्य-रचित "सत्वेषु मंत्री" आदि ३२ श्लोकों वाला संस्कृत भाषा का सामायिक पाठ पढ़े। प्रथवा "काल अनन्त भ्रम्यो इस जग में' आदि भाषा सामायिक पाठ पढ़े। उसके बाद णमोकार मादि किसी मन्त्र की जाप देवे । जाप के लिये-३५ अक्षरों का णमोकार मन्त्र, १७ अक्षरों का "अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नमः, ६ अक्षरों का परहन्तसिद्ध, ५ अक्षरों का असिग्राउसा, ४ अक्षरों का मरहन्त, दो अक्षरों का मन्त्र सिद्ध तथा एक अक्षर का मन्त्र ॐ है। इसके सिवाय और भी अनेक मन्त्र माला फेरने के लिये हैं। जाप देकर समय और सुविधा हो तो भक्तामर आदि पांच स्त्रोत्र, स्वयम्भूस्त्रोत्र, का या एक स्त्रोत्र का पाठ कर ले। अन्त में उसी स्थान में कायोत्सर्ग (हाथ नीचे लम्बे करके निश्चल' खड़ा होना) के रूप में खड़े होकर बार णमोकार मन्त्र पढ़े और ढोक देकर नमस्कार (दण्डवत) करे।
प्रोषध प्रतिमा प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को सब प्रारम्भ परिग्रह छोड़कर मन्दिर या धर्मशालादि एकान्त शान्त स्थान में आहार पान छोड़कर धर्मध्यान करे, कोई अतिचार न लगने दे। अष्टमी को प्रोषधोपवास करना हो तो सप्तमी को एकासन करे, अष्टमी को उपवास करे और नवमी को दोपहर पीछे भोजन करे। इस तरह सप्तमी के प्राधे दिन के २ पहर रात के ४ पहर, प्रष्टमी दिन रात के ८ पहर और नवमी को दोपहर सब १६ पहर (४८ घंटे) तक खान पान का त्याग करना चाहिये । १६. पहर का प्रोषधापवास उत्कृष्ट है। १२ पहर का मध्यम, (सप्तमी की रात्री के ४ पहर अष्टमी के दिन रात आठ पहर धर्मध्यान से बिताना) है और न पहर का (प्रष्टमी दिन रात के पाठ पहर धर्मध्यान में व्यतीत होना) जघन्य है।
इसमें कोई अतिचार न लगाना चाहिये। दूसरी प्रतिमा का प्रोषधोपवास शिक्षाक्त के रूप में होता है उसमें प्रतिचारों का त्याग नहीं होता। चौथी प्रतिमा में प्रतिचारों का त्याग होता है।
सचित्त त्याग प्रतिमा जीव सहित पदार्थ को सचित्त कहते हैं। जघन्य धावक के भी दो इन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा तथा उनके मांस भक्षण का त्याग होता है। स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग चौथी प्रतिमाधारी तक के स्त्री पुरुषों के नहीं होता। इसी कारण वे छने हुये सचित्त जल (कच्चा पानी) तथा सचित्त वनस्पति (शाक फल आदि) खाते हैं। परन्तु पाँचवी प्रतिमा
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