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अनुचित है। इस शिकार दुव्यसन की ऐसी खोटी लत है कि एक बार इनका चसका पड़ जाने से फिर वही वहीं दिखाई देता है। हर समय इस व्यसन में प्राण जाने का संकट उपस्थित रहता है। जो लोग इस व्यसन को सेवन कर वीर बनना चाहते हैं वे वीर नहीं, किन्तु धर्महीन अविवेकी हैं। वे इस लोक में निंद्य गिने जाते हैं और परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं शिकार व्यसन के कारण ब्रह्मदत्त राजा राज्य भ्रष्ट होकर नरक गया ।
चोरी-पराई बस्तु भूली-बिसरी रक्खी हुई उसकी आज्ञा बिना ले जाना, चोरी है। चोरी करने में प्रासक्त हो जाना चोरी व्यसन कहलाता है, जिनको चोरी का व्यसन पड़ जाता है, वे धन पास होते हुए भी महाकष्ट प्रापदा प्राते हुये भी चोरी करते हैं। ऐसे पुरुष राजदण्ड का दुःख भोग निन्दा एवं कुगति के पात्र बनते हैं। चोरी करने से शिवभूति पुरोहित कष्ट पापदा भोग कर कुगति को प्राप्त हुआ।
७. परस्त्री सेवन–देव, गुरु, धर्म, और पंचों को साक्षी पूर्वक पाणिग्रहण की हुई स्वस्त्री के सिवाय अन्य स्त्री से संयोग (संभोग) करने में आसक्त हो जाना पर स्त्री मेवन व्यसन है। पर स्त्री सेवी धर्म, धन-यौवनादि उत्तम पदार्थों को गंवाते हैं. राजदण्ड, जातिदण्ड, लोकनिन्दा को प्राप्त हो, नरक में जाकर लोहे की तप्त पुतलियों से मिटाये जाते हैं। जैसे जंठन खाकर कूकर-काग प्रसन्न होते हैं वैसे ही पर स्त्री लंपटी की दशा जानो। इस व्यसन की इच्छा तथा उपाय करने मात्र से रावण नरक गया और लोक में अब तक उसका अपयश चला पाता है।
ये सप्त व्यसन संसार परिभ्रमण के कारण रोग, क्लेश, बध बंधनादि के कराने वाले, पाप के बीज, मोक्ष मार्ग में विघ्न करने वाले हैं। सर्व प्रौगुणों के मूल, अन्याय की मूर्ति तथा लोक-परलोक बिगाड़ने वाले हैं। जो सप्त व्यसनों में रत होता है उसके विशुद्ध लब्धि अर्थात् सम्यकत्व धारण होने योग्य पवित्र परिणामों का होना भी सम्भव नहीं, क्योंकि उसके परिणामों में अन्याय से अरुचि नहीं होती। ऐसी दशा में शुभ कार्यों से तथा धर्म से रुचि कैसे हो सकती है ? इसलिये प्रत्येक स्त्री-पुरुष को इन सप्त व्यसनों को सर्वथा तजकर शुभ कार्यों में रुचि करते हुए नियमपूर्वक सम्यवद्धानी बनना चाहिये । और गहस्थ धर्म के उपर्युक्त अष्ट मूलगुण धारण करना चाहिये।
चारित्रधारक गृहस्थ के ११ निलय यानि श्रेणी (प्रतिमाये) हैं।
दर्शन प्रतिमा संसार तथा शरीर, विषय भोगों से विरक्त गृहस्थ जब पाँच उदुम्बर फल (बिना फल के ही जो फल होते हैं। १ बड़, पीपल, ३ पाकर, ४ ऊमर, ५ कठ्मर भक्षण के त्याग तथा ३ मकार (मद्यपान, मांस भक्षण, मध भक्षण) के त्याग के साथ सम्यग्दर्शन (बीतराग देव, जिन वाणी, निर्ग्रन्थ साधु की श्रद्धा) का धारण करना दर्शन प्रतिमा है।
व्रत प्रतिमा हिंसा, असत्य, चोरी कुशील और परिग्रह, इन पांच पापों के स्थूल त्याग रूप अहिंसा, सत्य, पचौर्य, ब्रह्मचर्य परियड परिमाण ये पांच प्रणबत, दिखत, देशव्रत, अनर्थदण्ड प्रत, ये तीन गुणव्रत, सामायिक प्रौषधोपवास भोगोपभोग परिमाण अतिथि संविभाग ये ४ शिक्षाव्रत (५+३+४-१२) हैं। इन समस्त १२ व्रतों का माचरण करना व्रत प्रतिमा है।
संकल्प से (जान बूझकर) दो इन्द्रिय प्रादि स जीवों को न मारना अहिंसा अणव्रत है। राज दण्डनीय, पंचों द्वारा पहनीय, असत्य भाषण न करना सत्य अणुव्रत है। सर्व साधारण जल मिट्टी के सिवाय अन्य व्यक्ति का कोई भी पदार्थ बिना पोन लेना. अचौर्य प्रणवत है। अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय शेष सब स्त्रियों से विषय सेवन का त्याग ब्रह्मचर्य प्रणव्रत है। सोना, चांदी, वस्त्र बर्तन, गाय आदि पशु धन, गेहू आदि धान्य, पृथ्वी, मकान, दासी (नौकरानी), दास (चाकर) तथा और
परिणत पदार्थों को अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण करके शेष परिग्रह का परित्याग करना परिग्रह परिमाणवत है। पंच पापों का पांशिक त्याग होने से इनको अणुव्रत कहते हैं।
पर्व, परिचम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य तथा ऊध्वं (पृथ्वी से ऊपर आकाश) और प्रधः (पृथ्वी से नीचे) इन दस दिशामों में आने जाने की सीमा (हद) जन्म भर के लिये करना "दिग्नत" है।