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कुप्रावचनिक भावावश्यक
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लोइयं भावावस्सयं - पुव्वण्हे भारहं, अवरण्हे रामायणं। सेत्तं लोइयं भावावस्सयं। __ शब्दार्थ - पुव्वण्हे - पूर्वाह्न-प्रथम प्रहर (दिन का पूर्व भाग), भारहं - भारत-महाभारत, अवरण्हे - अपराह्न-मध्यानोत्तर (दिन का उत्तर भाग)।
भावार्थ - लौकिक भावावश्यक का कैसा स्वरूप है?
दिन के पूर्व भाग में महाभारत का तथा उत्तर भाग में रामायण का वाचन श्रवण आदि लौकिक नो आगम भावावश्यक है।
विवेचन - वैदिक परंपरानुवर्ती लोगों द्वारा आगम रूप में स्वीकृत महाभारत, रामायण आदि का वाचन, पठन, श्रवण आदि को आवश्यक के रूप में परिगृहीत किया गया है। किन्तु वस्तुवृत्या वे आगम नहीं हैं। इसलिए वहाँ नो आगम की संगति घटित होती है। लोक प्रचलित होने से उसे लौकिक संज्ञा द्वारा अभिहित किया गया है।
कुप्रावचनिक भावावश्यक से किं तं कुप्पावयणियं भावावस्सयं?
कुप्पावयणियं भावावस्सयं - जे इमे चरगचीरिग जाव पासंडत्था इजंजलि होमजपोंदुरुक्कणमुक्कारमाइयाई भावावस्सयाई करेंति। सेत्तं कुप्पावयणियं भावावस्सयं।
शब्दार्थ - इज्ज - यज्ञ, अंजलि - जलादि द्वारा अभिषेक, होम - हवन, जप - मंत्र जप, उंदुरुक्क - उन्दुरुक्त-सांड आदि की तरह जोर से ध्वनि विशेष का उच्चारण, णमुक्कारमाइयाई - नमस्कार आदि, करेंति - करते हैं।
भावार्थ - कप्रावचनिक भावावश्यक का कैसा स्वरूप है? , चरक, चीरिक यावत् निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धाशील अन्य संप्रदायानुयायी यज्ञ, जलादि द्वारा अभिषेक, हवन, मंत्र जप, विशिष्ट ध्वनि उच्चारण, नमस्कार आदि जो करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है।
विवेचन - यज्ञादि में श्रद्धा रखने वाले मीमांसक आदि यज्ञादि जो विविध उपक्रम करते । हैं, उसे कुप्रावचनिक भावावश्यक कहा गया है। वे जो भी करते हैं, उसमें उनकी श्रद्धा होती है
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