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पांच स्थावरों की शरीरावगाहना
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भावार्थ - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की शरीरावगाहना कियत् विस्तृत कही गई है?
आयुष्मन् गौतम! यह जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी तथा उत्कृष्टतः (भी) अंगुल के असंख्यात भाग परिमित होती है। इसी प्रकार औधिक (सामान्यतः) पर्याप्त और अपर्याप्त तीनों ही अपेक्षाओं से सूक्ष्म (पृथ्वीकायिक जीवों की) अवगाहना कथनीय है। इसी तरह यावत् पर्याप्ति युक्त बादर वायुकायिक जीवों की अवगाहना कथनीय है।
विवेचन - इस सूत्र में जघन्यतः और उत्कृष्टतः अंगुल के असंख्यातवें भाग के समान शरीरावगाहना की चर्चा हुई है, वहाँ यह शंका उपस्थित होती है - जब दोनों ही असंख्य हैं तब जघन्य और उत्कृष्ट का भेद कैसे सिद्ध होगा?
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि असंख्य वह होता है, जो संख्येय को पार कर जाता है। किन्तु संख्येय को पार करने पर भी पारस्परिक न्यूनाधिक तारतम्य की दृष्टि से असंख्य की अनेक कोटियाँ बनती हैं। ___इसलिए जो जघन्य के साथ असंख्य का उल्लेख हुआ है, वह असंख्य न्यूनकोटि का है तथा उत्कृष्ट के साथ प्रयुक्त असंख्य तदपेक्षया आधिक्य लिए हुए है। - वणस्सइकाइयाणं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता?
गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजड़भागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं।
सुहुमवणस्सइकाइयाणं ओहियाणं अपजत्तगाणं पजत्तगाणं तिण्हं पिजहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजड़भागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजड़भागं।
बायरवणस्सइकाइयाणं ओहियाणं - जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजड़भाग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं। अपजत्तगाणं - जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजड़भाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजड़भागं। पजत्तगाणं - जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजड़भागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं।
शब्दार्थ - साइरेगं - सातिरेक - कुछ अधिक। भावार्थ - हे भगवन्! वनस्पतिकायिक जीवों की शरीरावगाहना कितनी कही गई है?
आयुष्मन् गौतम! यह जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमित तथा उत्कृष्टतः कुछ अधिक एक हजार योजन होती है।
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