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नारकों में बद्ध मुक्त शरीरों की प्ररूपणा
उनमें जो बद्ध औदारिक शरीर हैं, वे इनके नहीं होते हैं। इनमें जो मुक्त हैं, वे पूर्ववर्णित सामान्य मुक्त औदारिक शरीरों के समान ही ज्ञातव्य हैं।
विवेचन
इस सूत्र में नैरयिक जीवों के दो औदारिक शरीर होने का उल्लेख किया गया है फिर बद्ध औदारिक का निषेध किया गया है तथा मुक्त औदारिक को पूर्ववर्णित औदारिकों की तरह ज्ञातव्य कहा है।
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यहाँ यह ज्ञाप्य है - नैरयिकों के औदारिक शरीर होते ही नहीं । उनके तो वैक्रिय शरीर ही होते हैं। किन्तु यहाँ उनके नारक योनि में पूर्वतन तिर्यंच या मनुष्य पर्याय में जो औदारिक शरीर थे, उनकी अपेक्षा से यह वर्णन है । इसे पूर्व प्रज्ञापना नय कहा जाता है।
बद्ध औदारिक न होने की जो बात कही है, वह पूर्वतन भवगत औदारिक शरीर के दूरवर्तित्व की दृष्टि से है। मुक्त शरीर के होने का जो वर्णन है, वह पूर्वगत भव शरीर के आसन्नवर्तित्व के कारण है। अर्थात् यहाँ अभाव तो दोनों ही शरीरों का है किन्तु जिस औदारिक शरीर को छोड़कर उन्होंने नरकगति में वैक्रिय शरीर प्राप्त किया, बद्ध औदारिक की अपेक्षा मुक्त औदारिक शरीर अत्यधिक निकटवर्ती रहा है।
रइयाणं भंते! केवइया वेडव्वियसरीरा पण्णत्ता ?
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गोया ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - बद्धेल्लया य १ मुक्केल्लया य २ ।
तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिजड़भागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बिइयवग्गमूलपडुप्पण्णं, अहवा णं अंगुलबिइयवग्गमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ । तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा ।
शब्दार्थ - बिइयवग्गमूलपडुप्पण्णं - द्वितीय वर्गमूल प्रत्युत्पन्न ।
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भावार्थ - हे भगवन्! नैरयिकों के कितने वैक्रिय शरीर परिज्ञापित हुए हैं?
हे आयुष्मन् गौतम! ये बद्ध और मुक्त के रूप में दो प्रकार के कहे गए हैं।
इनमें जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं, वे असंख्यात हैं। वे कालतः असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी द्वारा अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः वे असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातवें भाग तुल्य हैं। इन श्रेणियों की विष्कंभ सूची (चौड़ाई) अंगुल के प्रथम वर्गमूल को
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