Book Title: Anuyogdwar Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 512
________________ नामनिष्पन्न निक्षेप ४८७ पसत्था तिविहा पण्णत्ता। तंजहा - णाणज्झवणा १ दंसणज्झवणा २ चरित्तज्झवणा ३। सेत्तं पसत्था। भावार्थ - प्रशस्त भावक्षपणा कितने प्रकार की है? प्रशस्त भावक्षपणा ज्ञानक्षपणा, दर्शनक्षपणा और चारित्रक्षपणा के रूप में तीन प्रकार की परिज्ञापित हुई है। यह प्रशस्त क्षपणा का स्वरूप है। से किं तं अपसत्था? अपसत्था चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - कोहज्झवणा १ माणज्झवणा २ मायज्झवणा ३ लोहज्झवणा ४। से तं अपसत्था। . से तं णोआगमओ भावज्झवणा। से तं भावज्झवणा। से तं झवणा। से तं ओहणिप्फण्णे। भावार्थ - अप्रशस्त भावक्षपणा कितने प्रकार की होती है? अप्रशस्त भावक्षपणा चार प्रकार की परिज्ञापित हुई है - • १. क्रोधक्षपणा २. मानक्षपणा ३. मायाक्षपणा और ४. लोभक्षपणा। यह अप्रशस्त भावक्षपणा का स्वरूप है। यह भावक्षपणा के अन्तर्गत नोआगमतः भावक्षपणा का विवेचन है। इस प्रकार ओघनिष्पन्न निक्षेपगत क्षपणा की वक्तव्यता परिसमाप्त होती है। विवेचन - किसी किसी प्रति में उपर्युक्त मूल पाठ में प्रशस्त अप्रशस्त क्षपणा के भेदों को व्युत्क्रम से लिया है अर्थात् प्रशस्त क्षपणा में चार कषायों की क्षपणा तथा अप्रशस्त क्षपणा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की क्षपणा को बताया गया है। एक जगह 'प्रशस्त' विशेषण को 'भाव' का और दूसरी जगह 'क्षपणा' का विशेषण माना गया है। अतः प्रशस्त ज्ञान आदि गुणों के क्षय को प्रशस्त भाव क्षपणा के रूप में एवं अप्रशस्त क्रोधादि के क्षय को अप्रशस्त भाव क्षपणा के रूप में ग्रहण किया गया है। इसी आपेक्षिक दृष्टि के कारण किसी-किसी प्रति में यहाँ प्रस्तुत पाठ से भिन्न पाठ दिया गया है। नामनिष्पन्ननिक्षेप से किं तं णामणिप्फण्णे? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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