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अनुयोगद्वार सूत्र
१२. पवन - जिस प्रकार पवन सर्वत्र अप्रतिहत, अनवरूद्ध रूप से चलता है, उसी प्रकार साधु भी सर्वत्र अप्रतिबद्ध विहरणशील होता है। ___ इन बारह उपमाओं के प्रत्येक के सात-सात भेद करके चौरासी भेद भी बताये गये हैं। श्री अमोलकऋषिजी म. सा. द्वारा संपादित 'जैन तत्व प्रकाश' पुस्तक में उन चौरासी भेदों को. बताया गया है।
श्रमण का व्युत्पत्ति मूलक निर्वचन : तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणवमाणेसु॥६॥
से तं णोआगमओ भावसामाइए। से तं भावसामाइए। से तं सामाइए। से तं णामणिप्फण्णे।
शब्दार्थ - जइ - यदि, सुमणो - श्रेष्ठ, उत्तम मन - मानसिक वृत्ति युक्त, पावमणो - पाप पूर्ण मन युक्त, सयणे - पारिवारिकजनों के प्रति, माणावमाणेसु - सम्मान - तिरस्कार में।
भावार्थ - जिसका मन उत्तम, पवित्र भाव युक्त रहता है, जिसके मन में कभी पाप उत्पन्न नहीं होता, जो अपने सांसारिक संबंधियों के प्रति एवं अन्यों के प्रति सदैव समान भाव लिए रहता है तथा जो मान और अपमान को समान समझता है, वह श्रमण होता है॥६॥
यह नोआगमतः भाव सामायिक है। इस प्रकार सामायिक के अन्तर्गत भाव सामायिक का विवेचन है। इस प्रकार नाम निष्पन्न की वक्तव्यता पूर्ण होती है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में श्रमण का विशिष्ट रूप में शाब्दिक विश्लेषण करते हुए नोआगमतः भाव सामायिक के संपन्न होने की सूचना है। यह सुविदित है कि सामायिक ज्ञान के साथ क्रिया रूप भी है। क्रिया आगम रूप नहीं मानी जाती। इसलिए यहाँ नोआगमता सिद्ध होती है। किन्तु सामायिक और सामायिकाचरणाशील श्रमण दोनों में अभेदोपचार करने से श्रमण भी नोआगम की अपेक्षा भाव सामायिक है।
सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप से किं तं सुत्तालावगणिप्फण्णे?
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