Book Title: Anuyogdwar Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 483
________________ ४५८ अनुयोगद्वार सूत्र . परसमयवक्तव्यता से किं तं परसमयवत्तव्वया? परसमयवत्तव्वया - जत्थ णं परसमए आघविजइ जाव उवदंसिज्जइ। सेत्तं परसमयवत्तव्वया। भावार्थ - परसमय वक्तव्यता का क्या स्वरूप है? जिस वक्तव्यता द्वारा अन्य मतों के सिद्धान्तों का आख्यान, कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, वह परसमय वक्तव्यता है। विवेचन - तत्त्व विश्लेषण में अपने सिद्धान्तों का तो वर्णन होता ही है, पूर्वपक्ष के रूप में अन्य मतों के सिद्धांत भी वर्णित किए जाते हैं क्योंकि पूर्वपक्ष के निरसन बिना स्वसिद्धांत का सम्यक् संस्थापन, परिष्ठापन नहीं होता। परिज्ञापन की दृष्टि से ऐसा करना अनुचित नहीं माना जाता। जैन दर्शन का यह बड़ा ही उत्तम दृष्टिकोण है कि अध्येता की दृष्टि यदि सम्यक् है तो उस द्वारा पठित, अधीत मिथ्या दर्शनमूलक सिद्धांत या वाङ्मय भी सम्यक् हो जाता है। अर्थात् उनके सहारे वह अपने सत्य सिद्धान्तों को सुदृढ़ बनाता है। उनका अध्ययन उसके लिए हानिप्रद नहीं होता। जिसकी दृष्टि असम्यक् या मिथ्या है, वह यदि सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर देव द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों को भी पढ़ता है तो उसके लिए वह मिथ्या होते हैं क्योंकि अपनी दृष्टि के विपर्यास के कारण वह उन्हें असत् रूप में गृहीत करता है। यही कारण है कि जैन आगमों एवं शास्त्रों में अन्य मत के सिद्धान्तों का भी पूर्वपक्ष के परिज्ञापन की दृष्टि से विवेचन प्राप्त होता है। ___उदाहरणार्थ - द्वादशांगी के द्वितीय अंग सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में परसमय - अन्य मतों या दर्शनों का जो वर्णन आया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस उद्देशक की छठी गाथा आगे वर्णित किए जाने वाले पूर्वपक्षमूलक सिद्धान्तों की प्रस्तावना के रूप में रचित है। कहा गया है - एए गंथे विठक्कम्म, एगे समणमाहणा। अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहिं माणवा॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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