Book Title: Anuyogdwar Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 499
________________ ४७४ अनुयोगद्वार सूत्र सेत्तं णोआगमओ भावज्झयणे। सेत्तं भावज्झयणे। सेत्तं अज्झयणे। शब्दार्थ - अज्झप्पस्साणयणं - अध्यात्म में आनयन - सामायिक आदि के अध्ययन में संलग्नता, कम्माणं - कर्मों का, अवचओ - अपचय - क्षय (नाश), उवचियाणं - उपचितसंचित, अणुवचओ - असंचय, णवाणं - नये (कर्मों) का, तम्हा - इस कारण से, अज्झयणमिच्छंति - अध्ययन को चाहते हैं। भावार्थ - नोआगमतः भाव अध्ययन का क्या स्वरूप है? नो आगमतः भाव अध्ययन इस प्रकार है - गाथा - अपने आप को अध्यात्म आनयन - सामायिक आदि में चित्त को लगाने, उपार्जित, संचित कर्मों का क्षय करने तथा नवीन कर्मों का अवरोध होने के कारण मुमुक्षु साधक अध्ययन की इच्छा करते हैं। यह नोआगमतः भाव अध्ययन का स्वरूप है। इस प्रकार अध्ययन के अन्तर्गत भावअध्ययन का विवेचन परिसमाप्त होता है। विवेचन - नोआगमतः भाव अध्ययन में जो 'नो' शब्द का प्रयोग हुआ है, वह एकदेशीयता का सूचक है। क्योंकि सामायिक आदि अध्ययन ज्ञान और क्रिया का समन्वित रूप लिए होने के कारण आगम के एक देश हैं। इसीलिए इसे नो आगम अध्ययन के रूप में ज्ञापित किया गया है। यहाँ (इस गाथा में) प्रयुक्त 'अज्झप्पस्सायणं' का संस्कृत रूप 'अध्यात्मस्य आनयनं' है। 'आत्मानमधिकृत्य विद्यते यत् तदध्यात्मम्' - जो आत्मा को अधिकृत कर वर्तमान रहता है, उसे अध्यात्म कहा जाता है। अर्थात् जिसमें आत्म स्वरूप का अधिग्रहण होता है, आत्मभाव का अनुशीलन होता है, वह अध्यात्म है। यह अध्यात्म शब्द का षष्ठी विभक्ति का रूप है। आनयन शब्द आ पूर्वक नी धातु से निष्पन्न कृदन्त प्रत्ययात्मक रूप है। नी धातु ले जाने के अर्थ में तथा आ पूर्वक नी धातु लाने के अर्थ में है। अध्यात्म में चित्त को लगाना अध्यात्मानयन है। सामायिक शब्द इसी भाव से अनुरंजित है। उसमें निर्जरा और संवर दोनों सधते हैं। 'सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि' - सभी सावध योगों का त्याग करता हूँ, यह संवर की भाषा है, इससे नूतन कर्मों का संचित होना अवरुद्ध हो जाता है। सामायिक - आत्मभाव के चिंतन, स्वरूपानुभावन से चैतसिक निर्मलता होती है, जो तपश्चरण का रूप है और कर्म-निर्जरण का हेतु है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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