Book Title: Anuyogdwar Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 494
________________ भाव समवतार यह भाव समवतार का स्वरूप है। इस प्रकार समवतार का विवेचन पूर्ण होता है। यहाँ उपक्रम संज्ञक प्रथम द्वार की विवेच्यता पूर्ण होती है । विवेचन समवतार के सम्बन्ध में अवशिष्ट विचारणीय इस शास्त्र में प्रारम्भ से आवश्यक का विचार प्रस्तुत किया गया है, इसलिए आवश्यक के अंतर्गत सामायिक आदि अध्ययन भी क्षायोपशमिक भावरूप होने से पूर्वोक्त आनुपूर्वी आदि भेदों में कहाँ-कहाँ किसका समवतार होता है। इसका निरूपण यहाँ करना चाहिए था, किन्तु शास्त्रकार की प्रवृत्ति अन्यत्र भी ऐसी ही देखी गई है कि जो बात आसानी से समझ में आ जाती है, उसका वे सूत्र में निरूपण नहीं करते, सामायिक आदि अध्यनों का समवतार सुखावबोध्य होने के कारण शास्त्रकार ने यहाँ नहीं कहा है। उपयोगी होने के कारण तथा मन्दमति शिष्यों को सुगमता से बोध हो सके, इस दृष्टि से पूज्यवृत्तिकार ने यहाँ सामायिक आदि अध्ययनों के समवतार का निरूपण करने की कृपा की है - - सामायिक उत्कीर्तन का विषय होता है, इसलिए सामायिकाध्ययन का उत्कीर्तनानुपूर्वी में समवतार होता है तथा गणनानुपूर्वी में भी । पूर्वानुपूर्वी से जब आवश्यक के अध्ययनों की गणना की जाती है तो सामायिक प्रथम स्थान पर आता है और जब पश्चानुपूर्वी से गणना की जाती है तो यह ( सामायिक) छठे स्थान पर आता है, तथा जब इसकी गणना अनानुपूर्वी से की जाती है तब यह द्वितीय आदि स्थानों पर आता है। अतः इसका स्थान नियत नहीं है। इनमें सामायिक अध्ययन श्रुतज्ञानरूप होने से और श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक भाव में आता क्योंकि वह श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमजन्य होता है। अतः सामायिक का समवतार क्षायोपशमिक भाव - नाम में होता है। जैसा कि भाष्यकार ने कहा है Jain Education International - For Personal & Private Use Only ४६६ - विना भावे खओवसमिए सुयं समोयर । जं सुयनाणावरणक्खओवसमयं तयं सव्वं ॥ • छह प्रकार के भाव नाम में से क्षायोपशमिक भाव-नाम में श्रुत का समवतरण हो जाता है । क्योंकि यह सब श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम जन्य है । प्रमाणद्वार के प्रारम्भ में ही द्रव्यप्रमाण आदि के भेद से अनेक प्रकार के प्रमाणों का उल्लेख पहले किया गया है। प्रमाण जीवभावरूप है, यह पहले निर्णय किया गया था और सामायिक अध्ययन जीव का भाव रूप होने के कारण भाव प्रमाण में इसका समवतार हो जाता www.jainelibrary.org

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