Book Title: Anuyogdwar Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 484
________________ स्वसमय-परसमय वक्तव्यता ४५६ ___ यद्यपि 'श्रमण' शब्द का प्रयोग आज जैन और बौद्ध आदि दोनों के लिए होता है किन्तु यहाँ आया हुआ श्रमण शब्द श्रमण परंपरावर्ती अजितकेशकंबल, संजयवेलट्ठिपुत्र, प्रकुदकात्यायन, गौतमबौद्ध आदि सबके लिए है। माहण शब्द का प्रयोग ब्राह्मण परंपरा के अनुयायी, अद्वैतसिद्धांतवादी, बार्हस्पत्यदर्शनानुयायी साधकों के लिए हुआ है। इन्हें इस गाथा में आर्हत् सिद्धांत का उल्लंघन कर अपने-अपने सिद्धान्तों में अनुबद्ध अज्ञानी एवं काम-भोगासक्त बतलाया गया है। अर्थात् ये परमतवादी थे, जैन दर्शन में इनकी आस्था नहीं थी। ____ आगे सातवीं गाथा से उन्नीसवीं गाथा तक जेनेतर वादों का निरूपण हुआ है। सूत्रकृतांग के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शीलांक ने अपनी टीका में पंचभूतवादी (चार्वाक), आत्मषष्ठवादी (पंचभूतों के साथ-साथ आत्मा को मानने वाले) एकान्तवादी, ब्रह्माद्वैतवादी, पंचस्कंधवादी, चतुर्धातुवादी, क्षणिकवादी प्रभृति विभिन्न सैद्धान्तिकों का विस्तार से वर्णन किया है। यहाँ दर्शन विशेष का नाम तो नहीं लिया गया है किन्तु वादों का संक्षेप में उल्लेख किया गया है। यह दार्शनिक दृष्टि से परिपूर्ण तो नहीं है किन्तु इससे इतना अवश्य पता चलता है कि उस समय इन सिद्धान्तों पर विश्वास करने वाले विविध मतानुयायी भिक्षु, साधु और उनके अनुयायी थे। - आचार्य शीलांक ने इन वादों को चार्वाक, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, अद्वैतवाद आदि के साथ योजित करने का प्रयास किया है। इन वादों में वर्णित सिद्धांतों की शब्दावली, निरूपण शैली आदि से यह प्रकट होता है कि तब तक विभिन्न दर्शन व्यवस्थित, सुप्रतिष्ठित रूप प्राप्त नहीं कर सके थे, विकीर्ण रूप में उनके सिद्धांत फैले हुए थे। जिनका आचार्य, साधु उपदेश करते थे। इस उद्देशक की बीसवीं से पच्चीसवीं गाथा तक इन सिद्धांतों में आस्थावान पुरुषों को यथार्थ तत्त्व का स्वरूप नहीं समझने वाले, कर्मबंध की प्रक्रिया के बोध से रहित, धर्म का स्वरूप नहीं जानने वाले, मनमाने रूप में क्रियाएँ करने वाले कहा है। अंततः कहा है - वे गर्भ के, जन्म के, मृत्यु के पार नहीं जा सकते, जन्म-मरण से नहीं छूट सकते। आवागमन में भटकते रहते हैं। यह परसमय है। स्वसमय-परसमय वक्तव्यता से किं तं ससमयपरसमयवत्तव्वया? ससमयपरसमयवत्तव्वया - जत्थ णं ससमए परसमए आपविजइ जाव उवदंसिज्जइ। सेत्तं ससमयपरसमयवत्तव्वया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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