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दर्शनमा
अर्हत् अर्थ भाषित करते हैं। गणधर धर्मशासन या धर्मसंघ के हितार्थ निपुणता पूर्वक सूत्र रूप में उसका ग्रथन करते हैं। यों सूत्र का प्रवर्तन होता है।
दर्शनगुण प्रमाण
से किं तं दंसणगुणप्पमाणे ?
दंसणगुणप्पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते । तंजहा - चक्खुदंसणगुणप्पमाणे १ अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे २ ओहिदंसणगुणप्पमाणे ३ केवलदंसणगुणप्पमाणे ४ । चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घड़पडकडरहाइएसु दव्वेसु, अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयभावे, ओहिदंसणं ओहिदंसणिस्स सव्वरूविदव्वेसु ण पुण सव्वपज्जवेसु, केवलदंसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेसु य सव्वपज्जवेसु य । सेत्तं दंसणगुणप्पमाणे । शब्दार्थ - घडपडकडरहाइएसु घट-पट-कट - रथादिषु घड़ा, वस्त्र, कड़ा, रथ आदि में, आयभावे आत्मभाव में, सव्वरूविदव्वेसु - सभी रूपी द्रव्यों में, सव्वपज्जवेसु - सभी पर्यायों में ।
भावार्थ - दर्शनगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है?
दर्शनगुणप्रमाण चार प्रकार का परिज्ञापित हुआ है
१. चक्षुदर्शन गुणप्रमाण २. अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण ३. अवधिदर्शनगुणप्रमाण ४. केवलदर्शनगुणप्रमाण । चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट-पट - कट- रथ आदि द्रव्यों में होता है।
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अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन आत्मभाव में होता है।
अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता । केवलदर्शनी का केवलदर्शन सभी द्रव्यों में, सभी पर्यायों में होता है।
यह दर्शनगुणप्रमाण का निरूपण है।
विवेचन - दर्शन शब्द जैन परंपरा में दो अर्थों का सूचक है। दर्शन का एक अर्थ दृष्टि, आस्था या विश्वास है । वह सम्यक् व मिथ्या दो प्रकार का होता है। यहाँ दर्शन शब्द उस अर्थ में गृहीत नहीं हुआ है। यहाँ वह उपयोग के अर्थ में गृहीत है। उपयोग दो प्रकार का है दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग । उपयोग का अभिप्राय आत्मा के बोध या ज्ञानमूलक उपक्रम से है। उपयोग अनाकार एवं साकार दो प्रकार का होता है। दर्शन को अनाकार उपयोग कहा जाता है।
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