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नय प्रमाण
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५. यथाख्यात चारित्र यथाख्यात का तात्पर्य यथावत् रूप में या सर्वात्मना चारित्र पालन से है, जिसमें साधक कषाय रहित हो जाता है। इस चारित्र के दो भेद प्रतिपाती और अप्रतिपाती के रूप में माने गए हैं। जिस साधक का मोह उपशांत होता है उसका चारित्र प्रतिपाती तथा जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसका चारित्र अप्रतिपाती कहा जाता है। आश्रयभेद के आधार पर इसके छाद्यस्थिक और केवलिक के रूप में दो भेद अभिहित हुए हैं।
ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानवर्ती साधक का चारित्र छाद्यस्थिक तथा त्रयोदश एवं चतुर्दश गुणस्थानवर्ती साधक का चारित्र केवलिक कहा जाता है। यद्यपि एकादश-द्वादश गुणस्थानवर्ती जीव का मोह सर्वथा उपशांत या क्षीण हो जाता है किन्तु ज्ञानावरण आदि शेष तीन घातिकर्म अवशिष्ट रहते हैं। यहाँ प्रयुक्त छंद्य शब्द उन्हीं का द्योतक है । वहाँ साधक असर्वज्ञावस्था में रहता है । केवलिक चारित्र में मोह के साथ-साथ अवशिष्ट तीन घाति कर्म भी सर्वांशतः नष्ट हो जाते हैं।
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नय प्रमाण
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से किं तं णयप्पमाणे ?
णयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते । तंजहा - पत्थगदिट्टंतेणं १ वसहिदिट्ठतेणं २ पएसदिट्ठतेणं ३ ।
भावार्थ नय प्रमाण कितने प्रकार का है?
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नयप्रमाण तीन प्रकार का प्ररूपित हुआ है। दृष्टांत द्वारा ३. प्रदेश के दृष्टांत द्वारा ।
१. प्रस्थक के दृष्टांत द्वारा,
प्रस्थक दृष्टांत
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अविसुद्ध गमो भवइ - 'पत्थगस्स गच्छामि' ।
से किं तं पत्थगदिट्ठतेणं ?
पत्थगदिट्टंतेणं - से जहाणामए केइ पुरिसे परसुं गहाय अडविसमहुत्तो गच्छेज्जा,
तं पासित्ता केइ वएज्जा - 'कहिं भवं गच्छसिं?'
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२. वसति के
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