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प्रमाणांगुल
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.............. अहिगरणसंठाणसंठिए - अधिकरण संस्थान संस्थित - स्वर्णकार के एहरन जैसे संस्थान से युक्त, विक्खंभा - चौड़ाई।
भावार्थ - प्रमाणांगुल का क्या स्वरूप है?
चारों दिशाओं के एक मात्र अधिनायक चक्रवर्ती सम्राट के अष्ट स्वर्णप्रमाण, छह तल युक्त, बारह कोटियों (किनारे) एवं आठ कर्णिकाओं से युक्त, स्वर्णकार के एहरण के समान आकार में संस्थित काकणीरत्न की एक-एक कोटि उत्सेधांगुल परिमित चौड़ाई युक्त होती है। वह भगवान् महावीर के अर्धांगुल के तुल्य होती है। प्रमाणांगुल उससे हजार गुना होता है।
विवेचन - काकणीरत्न की एक-एक कोटि समचतुरस्र एक उत्सेधांगुल प्रमाण अर्थात एक उत्सेधांगुल जितनी लम्बी चौड़ी जाड़ी होती है ऐसा मूल पाठ एवं टीका में भी बताया है। अर्थात् एक उत्सेधांगुल घन जितनी समझना चाहिये।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में एवं संग्रहणी आदि ग्रन्थों में काकणीरत्न को चार अंगुल जितना बताया है यथा - 'चउरंगुलप्पमाणा सुवण्णवरकागणी नेया इति'। इसे मतान्तर समझना चाहिये। क्योंकि चार अंगुल लम्बी, चार अंगुल चौड़ी और चार अंगुल जाड़ाई वाली वस्तु आठ सौनेया के भार से ज्यादा की हो सकती है। अतः एक हाथ के घन वाली वस्तु का वजन आठ सौनेया जितना हो सकने से इस तरह से मानना उचित लगता है। ___ उपर्युक्त सूत्र में - 'किस व्यक्ति के स्वयं के अंगुल के बराबर प्रमाण अंगुल होता है' इसका वर्णन नहीं दिया गया है। प्राचीन परम्परा एवं सिद्धांतवादी आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित. विशेषावश्यक भाष्य एवं विशेषणवती ग्रन्थ के अनुसार-भगवान् ऋषभदेव एवं भरतचक्रवर्ती के स्वयं के एक अंगुल के बराबर प्रमाण अंगुल का होना बताया है। यहाँ मूलपाठ में तो - 'श्रमण भगवान् महावीर के अर्धांगुल से एक हजार गुणा प्रमाणांगुल होता है।' मात्र इतना ही बताया है। उपर्युक्त ग्रन्थों में अंगुल संबंधी विस्तार से वर्णन किया गया है। __एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई-पाओ, दुवालस अंगुलाई विहत्थी, दो विहत्थीओ=रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ=धणू, दो धणुसहस्साईगाउयं, चत्तारि गाउयाई-जोयणं।
. भावार्थ - इस प्रकार से इस अंगुल प्रमाणानुसार छह अंगुल का एक पाद, बारह अंगुल की एक वितस्ति, दो वितस्तियों की एक रत्नि, दो रत्नियों की एक कुक्षि, दो कुक्षियों का एक धनुष, दो हजार धनुष की एक गव्यूति तथा चार गव्यूति एक योजन के बराबर होती है।
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