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__ अनुयोगद्वार सूत्र
दण्डस्य+अग्रं =दंडाग्रं, सा+आगता=साऽऽगता, दधि+इदं दधीदं, णदी+इह=णदीह, मधु+उदकं मधूदकं, वधू+ऊहः वधूहः - ये विकारनिष्पन्न (के उदाहरण) हैं। __ यह चतुग का निरूपण है।
विवेचन - चतुर्नाम के अन्तर्गत चार प्रकार से निष्पन्न होने वाले शब्द रूपों, संधिरूपों की चर्चा है।
१. आगमनिष्पन्न - प्रथम भेद आगमनिष्पन्न है। मूल शब्द के आगे जो प्रत्यय, शब्दांश आदि जुड़ते हैं, उनके जुड़ने पर जो रूप बनता है, पद बनता है, वह आगम निष्पन्न होता है। 'विभक्त्यन्तं पदम्' के अनुसार नाम या शब्द के आगे विभक्ति लगने पर ही वह शब्द पद बनता है, वाक्य में प्रयोग योग्य होता है। इसमें पद्मानि, पयांसि, कुण्डानि - ये उदाहरण दिए हैं, वे क्रमशः पद्म, पयस्, कुण्ड शब्द के प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के रूप हैं, जो आगमनिष्पन्न है। उदाहरणार्थ 'पद्म' शब्द के प्रथमा बहुवचन में 'जस्' और द्वितीया बहुवचन में 'शस्' जुड़ता है। यहाँ तदनन्तर लोपादिद्वारा 'शि' हो जाता है। 'श्' का लोप होने से 'इ' शेष रहता है। 'नुमयमः' (सारस्वत व्याकरण, २१९/५) सूत्र से 'नुम्' का आगम होता है। यहाँ आनुबंधिक लोप हो जाने पर 'न्' रहता है।
"नः उपाधायाः" (सारस्वत व्याकरण, २२१/७) सूत्र से 'न' के पूर्ववर्ती 'म' में उपधावृद्धि हो जाने से तथा 'स्वरहीनेन परेण संयोज्यम्' से 'न्' एवं 'इ' का संयोग होने से पद्मानि सिद्ध होता है। यही प्रक्रिया पयांसि एवं कुण्डानि में ज्ञातव्य है।
२. लोपनिष्पन्न - संधि नियमों के अनुसार जब किसी वर्ण का लोप हो जाता है तथा लोप होने पर सम्मिलित संधि पदों का जो स्वरूप निष्पन्न होता है, वह लोपनिष्पन्न कहलाता है। यहाँ इस संदर्भ में तेऽत्र, पटोऽत्र, घटोऽत्र - ये तीन उदाहरण दिए हैं।
तेऽत्र में - ते 'तत्' शब्द का प्रथमा बहुवचन का रूप है। 'विभक्त्यन्तं पदम्' के अनुसार यह पद है। जिसके अन्त में 'ए' है।
सारस्वत व्याकरणानुसार ‘एदोतोऽतः' (सारस्वत व्याकरण, ५१/१९) सूत्रानुसार पद के अन्त में आने वाले 'ए' और 'ओ' के आगे 'अ' आ जाय तो उसका लोप हो जाता है। तदनुसार यहाँ 'ए' के आगे आए 'अ' का लोप हुआ है।
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