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अनुयोगद्वार सूत्र
तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे॥१॥ पंचमी य अवायाणे, छट्ठी सस्सामिवायणे। सत्तमी सण्णिहाणत्थे, अट्ठमाऽऽमंतणी भवे॥२॥
शब्दार्थ - वयणविभत्ती - वचन विभक्ति, णिद्देसे - निर्देश, पढमा - प्रथम, बिइयाद्वितीय, उवएसणे - उपदेशन में - उपदेश क्रिया में, तइया - तृतीय, करणम्मि - करण में साधकतम कारण में, कया - की गई है - बतलाई गई है, चउत्थी - चतुर्थी, संपयावणे - संप्रदान में, अपादायाणे - अपादान में, सस्सामिवायणे - स्व - स्वामित्व कथन में, सत्तमी - सातवीं, सण्णिहाणत्थे - सन्निधान - आधार में, अट्ठमा - आठवीं, आमंतणी - आमंत्रण - संबोधन में, भवे - होती है।
भावार्थ - अष्टनाम का क्या आशय है? आठ प्रकार की वचन विभक्तियाँ अष्टनाम के अन्तर्गत प्रज्ञप्त हुई हैं।
गाथाएं - निर्देश में प्रथमा, उपदेशन में द्वितीया, करण में तृतीया, संप्रदान में चतुर्थी, . अपादान में पंचमी, स्वस्वामित्व प्रतिपादन में षष्ठी, सन्निधान में सप्तमी तथा आमंत्रण में अष्टमी विभक्ति होती है॥१, २॥
विवेचन - ये आठों विभक्तियाँ व्याकरण में निर्देशित आठों कारकों का रूप लिए हुए हैं। प्रथमा विभक्ति वाक्य के कर्ता का निर्देश करती है, जो क्रियमाण कार्य का निर्वाहक होता है।
'उपदेशन' का तात्पर्य कर्म कारक से है। जिस पर कर्ता का फल पड़े वह कर्म है। 'क्रियतेतिकर्मः' - अर्थात् जो क्रिया के फल का आश्रय हो, वह कर्म है।
कर्ता को क्रिया का संपादन करने में साधन की आवश्यकता होती है। “साधकतम कारणं करणम्" - अर्थात् क्रिया सिद्धि का जो अनन्य हेतु होता है, वह करण है। 'संप्रदान' किसी के निमित्त कार्य करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। किसी को दिया जाता है, वहाँ चतुर्थी विभक्ति या संप्रदान कारक का प्रयोग होता है। संप्रदान वहीं होता है, जहाँ कोई वस्तु देकर वापस न ली जाय। जैसे गृही मुनये भिक्षा ददाति। यहाँ संप्रदान कारक का प्रयोग हुआ है। परन्तु “रजकाय वस्त्रं ददाति" में 'रजकाय' में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग अशुद्ध है क्योंकि वस्त्र वापस लिए जाते हैं। ___'अपादान' यहाँ अप+आदान - ये दो शब्द हैं। आदान का तात्पर्य ग्रहण से है। अपादान का तात्पर्य पृथक् होने से है।
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