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अनुयोगद्वार सूत्र
कालसंयोग से निष्पन्न होने वाले नाम इस प्रकार हैं - सुषम-सुषमा काल में उत्पन्न होने से सुषम-सौषमिक नाम होता है। उसी प्रकार उत्तरोत्तर कालानुरूप-सौषमिक, सुषम-दौषमिक, दुषम-सौषमिक, दौषमिक, दुषम-दौषमिक नाम होते हैं। अथवा वर्षाकाल में जो उत्पन्न होता है, वह वर्षा ऋत्विक, उसी प्रकार क्रमशः शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म ऋतु में उत्पन्न होने से शारदिक, हैमन्तिक, वासंतिक और ग्रैष्मिक नाम होते हैं।
यह कालसंयोग का स्वरूप है। विवेचन - इस सूत्र में उन नामों की चर्चा हैं, जिनका संबंध कालसंयोग के साथ है।
जैनधर्म सम्मत मध्यलोक के अन्तर्गत भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में कालचक्र की परिगणना की गई है। इस कालचक्र के अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी के रूप में दो विभाग हैं।
दो सर्पिणियाँ एक दूसरे से वृत्ताकार रूप में जुड़ी हुई हैं। एक सर्पिणी की पूंछ से दूसरी सर्पिणी का मुख संयोजित किया गया है। इसी कल्पित अवधारणा के आधार पर यहाँ सपिर्णी शब्द प्रयुक्त हुये हैं। ... यह कालचक्र अनादि-अनन्त है। अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी दोनों का कालमान १०-१० कोटाकोटि सागरोपम है। कालचक्र के ये दोनों अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी भेद क्रमशः या एकांतर रूप से वर्तित होते हैं। जैन धर्म में सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क विमान कालगणना के आधार हैं। काल का सूक्ष्मतम अंश, जिसका पुनः विभाजन न हो सके 'समय' कहलाता है। असंख्यात समयों की एक 'आवलिका' होती है। १, ६७, ७७, २१६ आवलिकाओं का एक मुहूर्त होता है। एक मुहूर्त में दो घटिकाएँ होती हैं। २४ मिनट की एक घड़ी तथा ४८ मिनट का एक मुहूर्त माना जाता है।
अतः ६० घड़ी का एक दिन-रात (२४ घण्टे), १५ दिन-रात का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, १२ मास का एक वर्ष होता है। जो काल गणना में आ सके, वह संख्येय तथा जो काल गणना में न आकर केवल उपमान से जाना जाता है, वह अपरिमेय, असंख्येय कहलाता है, जैसे - पल्योपम, सागरोपम आदि। __दोनों के चक्र के समान वर्तनशील होने से इसकी कालचक्र संज्ञा है। दोनों में ही ६-६ आरक होते हैं तथा हास और विकास के रूप में परस्पर भिन्नता है। .
एक अवसर्पिणी तथा एक उत्सर्पिणी के योग से एक कालचक्र पूर्ण होता है। इन दोनों का
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