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अनुयोगद्वार सूत्र
६. दुःषम - दुःषम यह पंचम आरे की समाप्ति के पश्चात् प्रारम्भ होता है। इसका समय भी इक्कीस हजार वर्ष माना जाता है। यहाँ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श में अनन्त गुणी हानि होती है। आयु उत्कृष्ट बीस वर्ष, अवगाहना प्रारम्भ में दो हाथ उतरते आरे उत्कृष्ट एक हाथ तथा पसलियाँ आठ ही रह जाती है, जो उतरते आरे में चार ही शेष रहती हैं। मनुष्यों में अपरिमित आहार की इच्छा जागृत होती है। रात्रि में शीत और दिन में ताप की प्रबलता होती है। उस समय उपलब्ध जीव-जन्तु ही इनका आहार होते हैं। ये मनुष्य दीन-हीन, दुर्बल, दुर्गंधित, रुग्ण, अपवित्र, नग्न, आचार-विचार से हीन और माता, भगिनि, पुत्री आदि से संयम न करने वाले होते हैं। छह वर्ष की स्त्री प्रसव करती है तथा कुतिया, शूकरी के सदृश बहुसंतान उत्पन्न होती है। धर्म और पुण्य से हीन होने से अपनी सम्पूर्ण आयु पूरी कर प्रायः नरक या तिर्यंच में जाते हैं।
वर्षा, शरद, बसंत आदि षड् ऋतुओं का विवेचन सर्वविदित हैं।
४. भाव संयोग निष्पन्न नाम
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से किं तं भावसंजोगे?
भावसंजोगे दुविहे पण्णत्ते । तंजहा - पसत्थे य १ अपसत्थे य २ ।
भावार्थ - भाव संयोग कितने प्रकार का है?
भाव संयोग के दो प्रकार निरूपित हुए हैं - १. प्रशस्त एवं २. अप्रशस्त ।
से किं तं सत्थे ? पसत्थे णाणेणं णाणी, दंसणेणं दंसणी, चरित्तेणं चरित्ती ।
सेत्तं सत्थे ।
भावार्थ - प्रशस्त का क्या स्वरूप है ?
ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संयोग से क्रमशः ज्ञानी, दर्शनी और चारित्री होता है ।
यह प्रशस्त का स्वरूप है।
विवेचन ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा के प्रशस्त, उत्तम या श्रेष्ठ भाव हैं। जिसके
जीवन में इनका संयोग होता है, वह तत्संबद्धनाम से अभिहित होता है। 'ज्ञानं यस्यास्ति स ज्ञानी' - जिसमें ज्ञान गुण हो, वह ज्ञानी कहा जाता है। यह व्याकरण का तद्धित प्रत्ययान्त प्रयोग है।
से किं तं अपसत्थे ?
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